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योगसार-प्राभृत
[ अधिकार १
निर्वाणकी प्राप्ति होती है, जिसे मोक्ष, मुक्ति तथा निर्वृति भी कहते हैं, और यही स्वस्वभावकी उपलब्धि है ।
स्वरूपको परद्रव्य-बहिर्भूत जाननेका परिणाम पर- द्रव्य - वहिर्भूतं स्व-स्वभावमवैति यः । पर-द्रव्ये स कुत्रापि न च द्वेष्टि न रज्यति ॥ ५ ॥
'जो अपने स्वभावको परद्रव्यसे बहिर्भूत रूपमें जानता है- समस्त परद्रव्य-समूह से अपनेको भिन्न अनुभव करता है - वह परद्रव्योंमें कहीं भी — परद्रव्यकी किसी अवस्था में भी-राग नहीं करता और न द्वेष करता है ।
व्याख्या---'
- पूर्व पद्य में यह कहा गया है कि जो जीव-तत्त्व में निलीन होता है उसके राग-द्वेषका क्षय हो जाता है, उसी बातको इस पद्य में स्पष्ट किया गया है - यह दर्शाया गया है कि जो आत्मलीन हुआ अपने स्वभावको परद्रव्योंसे बहिर्भूत रूपमें जानता है - यह अनुभव करता है कि पर मुझरूप नहीं, मैं पररूप नहीं, पर मुझमें नहीं, मैं परमें नहीं; पर मेरा नहीं और न मैं परका हूँ; इस तरह परको अपने साथ असम्बद्ध रूपमें देखता है - तो वह परद्रव्यकी किसी भी अवस्थामें राग नहीं करता और न द्वेष करता है; क्योंकि पर-द्रव्यके सम्बन्धसे और उसे इष्ट-अनिष्ट मानकर ही राग-द्वेषकी प्रवृत्ति होती है ।
जीवका लक्षण, उपयोग और उसके दर्शन ज्ञान दो भेद
उपयोगो विनिर्दिष्टस्तत्र लक्षणमात्मनः । द्विविधो दर्शन-ज्ञान-प्रभेदेन जिनाधिपैः || ६ ||
'उन दो मूल तत्त्वोंमें आत्माका लक्षण जिनेन्द्रदेवने 'उपयोग' निर्दिष्ट किया है और उस उपयोगको दर्शन-ज्ञानके प्रभेदसे दो प्रकारका बतलाया है।'
व्याख्या - यहाँ 'आत्मनः' पदके द्वारा जीवको 'आत्मा' शब्दसे उल्लिखित किया है और इससे यह जाना जाता है कि आत्मा जीवका नामान्तर अथवा पर्यायनाम है। जीवके जिस लक्षणको जाननेकी बात पहले कही गयी है वह लक्षण 'उपयोग' है जो कि आत्माका चतन्याविधायी परिणाम है, जिसके मूल विभाग दर्शन और ज्ञानके भेदसे दो प्रकारके हैं और इन भेदोंकी दृष्टि से देखने तथा जानने रूप चैतन्यानुविधायी परिणामको 'उपयोग' समझना चाहिये, जिसमें यह परिणमन वस्तुतः लक्षित होता है वही लक्ष्यभूत 'जीव' तत्त्व है; क्योंकि यह जीवका सदा काल अनन्यभूत परिणाम है, जो जीवसे पृथक अन्यत्र कहीं कभी लक्षित नहीं होता; जैसा कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य के निम्न वाक्यसे भी जाना जाता है :उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो ।
जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ॥ ( पंचा० ४० )
१. सव्वहणादिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं । ( समयसार २४ ); उवओगो खलु दुविहो णाणेण य दंसणेण संजुत्तो ॥ जीवस्स सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ॥ ( पंचास्ति ४० ); उपयोगो लक्षणम् २. आत्मनश्चैतन्यानुविधायी
मोक्षशास्त्र अ० २ ) ।
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सद्विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥ ९ ॥
परिणाम उपयोग: ( अमृतचन्द्रसूरि : ) ।
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