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प्रस्तावना (गलत अर्थ ) "यद्यपि मोह-लोभ आदि दोपोंकी उत्पत्ति निश्चयसे होती है तथापि दोपोंसे जो आत्माके साथ काँका बन्ध होता है वह निश्चय नयसे नहीं।"
( समुचित अर्थ ) “यद्यपि वस्तुके-परपदार्थके-निमित्तसे मोह तथा लोभादिक दोप उत्पन्न होते हैं तथापि कर्मका बन्ध उत्पन्न हुए दोषके कारण होता है न कि वस्तुके कारणपरपदार्थ बन्धका कारण नहीं, उसे बन्धका कारण माननेसे किसीका भी बन्धसे छूटना नहीं बन सकता।"
इस प्रकार यह पूर्वानुवादकी स्थितिका कुछ दिग्दर्शन है। अनुवादकी ऐसी त्रुटियों आदिको देखते हुए मुझे वह ग्रन्थ-गौरवके अनुरूप नहीं जंचा और इसलिए ग्रन्थके महत्त्वको ख्यापित करने तथा लोकहितकी दृष्टिसे उसे प्रचार में लानेके उद्देश्यसे मेरा विचार ग्रन्थका समुचित भाष्य रचनेकी ओर हुआ है। मैं उसमें कहाँ तक सफल हो सका हूँ, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं।
योगसार नामके दूसरे ग्रन्थ
'योगसार' नामके कुछ दूसरे ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं, जिनमें एक परमात्मप्रकाशके कर्ता योगीन्दुदेव कृत है जिसे ग्रन्थमें 'जोगिचन्द' लिखा है। यह अपभ्रंश भाषाके १०८ दोहोंमें अध्यात्म-विषयक उपदेशको लिये हुए है और परमात्मप्रकाशके साथ डॉ० ए०॥ उपाध्ये एम०ए०, डी०लिट् , कोल्हापुर-द्वारा सम्पादित होकर श्रीमद्राजचन्द जैन शास्त्रमालामें पं० जगदीशचन्द्रजी शास्त्रीके हिन्दी अनुवादके साथ प्रकाशित हो चुका है। दूसरा ग्रन्थ 'योगसार-संग्रह' नामसे उक्त डॉ० ए० एन० उपाध्येके द्वारा सम्पादित होकर माणिकचन्द दि० जैन मालामें प्रकाशित हुआ है। यह संस्कृतमें श्रीगुरुदासकी कृति है जो कि श्रीनन्दी गुरुके शिष्य थे। ये श्रीनन्दीगुरु श्रीनन्दनन्दिके शिष्य जान पड़ते हैं, जिनके पूर्व विशेषण रूपमें 'श्रीनन्दनन्दिवत्सः' पद दिया हुआ है, जो कि 'श्रीनन्दनन्दिवत्स'-होना चाहिए। इस ग्रन्थकी पद्य संख्या १५८ है, जिनमें योग-विषयक कथन है, ध्यानोंका स्वरूप है, मंत्रोंके ध्यानकी विधि और ध्यानको दृढ करनेवाली द्वादश भावनाओं आदिका कथन है। तीसरा 'योगसार' नामका संस्कृत ग्रन्थ अज्ञात कर्तृक है। इसमें पाँच प्रस्ताव और २०६ पद्य हैं। प्रस्तावों के नाम हैं
१. यथावस्थितदेवस्वरूपोपदेदा क, २. तत्त्वसारोपदेशक, ३. साम्योपदेशक, ४. सत्त्वोपदेशक, ५. भावशुद्धिजनकोपदेशक । इस तरह यह अध्यात्म-विषयका एक अच्छा औपदेशिक ग्रन्थ है और गुजराती अनुवादके साथ जैन साहित्य विकास मंडल बम्बईसे प्रकाशित हो चुका है।
इन तीनों योगसार नामक ग्रन्थों में से एक भी योगसार-प्राभृतके जोड़का नहीं । योगसार-प्राभृतकी पद्य-संख्या भी सबसे अधिक ५४० है ।
उपसंहार और आभार
प्रस्तावनाको समाप्त करते हुए, सबसे पहले, मैं उन ग्रन्थों तथा ग्रन्थकारोंका आभार मानता हूँ जिनका भाष्यमें उपयोग हुआ है अथवा जिनके वाक्योंसे भाष्यको समृद्ध करके अधिक उपयोगी बनाया गया है। दूसरे, पं० दीपचन्दजी पांड्या केकडी (अजमेर) का
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