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________________ ३२ or mm x x 9 vuoo योगसार-प्राभृत भेदको समझा जा सकता है। ऐसे अशुद्ध पाठोंके कुछ नमूने उदाहरणके तौरपर उनके शुद्धरूप-सहित नीचे दिये जाते हैंअधिकार पद्य अशुद्ध पाठ __ शुद्ध पाठ केवलेनैव बुध्यते केवलेनेव बुध्यते एकैकाव्यतिरिक्तास्ते एकैका व्यवतिष्ठन्ते अचेतनत्वमज्ञत्वात् अचेतनत्वमज्ञात्वा ज्ञायते त्यज्यंते जीवस्वातंत्र्यकारणं जीवाऽस्वातंत्र्यकारणं मारणादिकमात्मनः मरणादिकमात्मनः ज्ञानी ज्ञेयो भवत्यज्ञो ज्ञानी ज्ञेये भवत्यज्ञो मुक्तेरासन्नभावेन मुक्तेरासन्नभव्येन ४८ श्रवणं स्रावणं ज्ञानात्मके न चैतन्यं ज्ञानात्मकत्वे चैतन्ये शिवमयं शममयं दूसरे प्रकार की गलतियाँ अर्थका ठीक प्रतिभास न होनेसे सम्बन्ध रखती हैं। उनमें कुछ ऐसी हैं जिनमें कतिपय शब्दोंका अर्थ ही छोड़ दिया गया है। जैसे पद्य ७४७ में सांप्रतेक्षणा:' पदका और पद्य ८९ में 'निर्यापकाः' पदका कोई अर्थ ही नहीं दिया-उन्हें अर्थमें ग्रहण ही नहीं किया। कुछ ऐसी हैं जिनमें शब्दोंका गलत अर्थ प्रस्तुत किया गया है; जैसे पद्य नं० ३।५० में 'विधिना विभक्तं' शब्दोंका अर्थ 'सर्वथा भिन्न', ४।१५ में 'कर्पट' का अर्थ 'वस्त्र' की जगह 'सुवर्ण', ८।१८ में 'संज्ञावशीकृतः' का अर्थ 'आहारादि चतुर्विध संज्ञाओंके वशीभूत के स्थानपर 'अभिमानके वशीभूत', ९।४५ में 'तज्ज्योतिः परमात्मनः' का अर्थ 'वह आत्माकी परं ज्योति' के स्थानपर 'वह परमात्माका प्रकाश है' और ९।६५ में प्रयुक्त 'स्वार्थव्यावतिताक्षः' पदका अर्थ 'जिसकी आत्मा परमार्थसे विमुख है' ऐसा दिया है, जब कि वह इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे अलग रखनेवाला अथवा रखता हुआ होना चाहिए था। इसके सिवा दो पद्योंको उनके गलत तथा समुचित अर्थके साथ भी नमुनेके तौरपर यहाँ दिया जाता है, जिससे अर्थका ठीक प्रतिभास न होनेको और भी अच्छी तरह से समझा जा सकता है। साथ ही अनुवाद की भाषा, लेखन-शैली और प्रतिपादन-पद्धतिको भी कुछ समझा जा सकता है आत्मना कुरुते कर्म यद्यात्मा निश्चितं तदा। कथं तस्य फलं भुंक्त स दत्ते कर्म वा कथम् ॥ २-४८ ॥ (गलत अर्थ ) “यदि यह बात निश्चित है कि आत्मा स्वयं कर्मों का कर्ता है तो वह कर्मों के फलको क्यों भोगता है ? वा कर्म भी उसे क्यों फल देते हैं ?" (समुचित अर्थ) “यदि यह निश्चित रूपसे माना जाय कि आत्मा आत्माके द्वाराअपने ही उपादानसे-कर्मको करता है तो फिर वह उस कर्म के फलको कैसे भोगता है ? और वह कर्म ( आत्माको ) फल कैसे देता है ?-दोनोंके एक ही होनेपर फलदान और फलभोगकी बात नहीं बन सकती ?" जायन्ते मोहलोभाद्या दोषा यद्यपि वस्तुतः । तथापि दोषतो बन्धो दुरितस्य न वस्तुतः ॥३-३९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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