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प्रस्तावना
३१ इस अधिकारमें अन्य अधिकारों की अपेक्षा उपमाओं तथा उदाहरणोंका अच्छा प्राचुर्य है, जिससे विपय रोचक तथा सहज बोधगम्य बन गया है । ग्रन्थकारको निर्भीकता और स्पष्टवादिताका भी पद-पदपर दर्शन होता है।
(२) नवमे अधिकारमें मुक्तात्माकी सदा आनन्दरूप स्थितिका उल्लेख करते हुए यह सहेतुक बतलाया है कि उसके चेतनस्वभावका कभी नाश नहीं होता और न वह कभी निरर्थक ही होता है (१-८)। इसके बाद योगीके योगका लक्षण देकर (१०) योगसे उत्पन्न सुखकी विशिष्टता, सुख-दुःखका संक्षिप्त लक्षण और उस लक्षणकी दृष्टिसे पुण्यसे उत्पन्न होनेवाले भोगोंको भी दुःखरूप निर्दिष्ट किया है ( ११-१३)। भोगका स्वरूप दिया है (१५), संसारको आत्माका महान रोग बतलाया है और उस रोगसे छूट जानेपर मुक्तात्माकी जैसी कुछ स्थिति होती है-वह फिर संसारमें नहीं आता और न अज्ञताको ही धारण करता है-उसे दर्शाया है (१५-१६)। साथ ही भोग-विषयपर और उसके भोक्ता ज्ञानी तथा मोही जीवकी स्थितिपर अच्छा प्रकाश डाला है ( २०.२१)। भोग संसारसे सच्चा वैराग्य कब बनता है और निर्वाण तत्त्वमें परमा भक्तिके लिए क्या कुछ कर्तव्य है उसे भी दर्शाया है ( २७-२६)। और भी बहुत-सी आवश्यक रोचक एवं उपयोगी बातोंका निर्देश किया है, जिन्हें पिछले अधिकारोंमें यथेष्ट रूपसे नहीं बतलाया जा सका और जिन्हें संलग्न विषयसूची' से, जो अच्छे विस्तृतरूपमें दी गयी है, भले प्रकार जाना जा सकता है। अन्त में किनका जन्म और जीवन सफल है उसे बतलाते हुए ग्रन्थ तथा ग्रन्थकारके अभिप्रेतरूपमें प्रशस्ति दी गयी है, जिसमें प्रस्तुत ग्रन्थ योगसार-प्राभूतके एकाग्रचित्तसे पढ़नेके फलका भी निर्देश है ( ८२-८४)।
ग्रन्थका पूर्वानुवाद और उसकी स्थिति
- इस ग्रन्थपर संस्कृतकी कोई टीका उपलब्ध नहीं है। कुछ प्रतियोंके हाशियोंपर जो थोड़े-से टिप्पण पाये जाते हैं वे किसी-किसी शब्दका अर्थ द्योतन करनेके लिए कतिपय पाठकोंद्वारा अपने-अपने उपयोगार्थ नोट किये हुए जान पड़ते हैं और किसी एक ही विद्वानकी कृति मालूम नहीं होते, इसीसे उनमें सर्वत्र एकरूपता नहीं है। इन टिप्पणियोंके कितने ही नमने ग्रन्थकी उन पाद-टिप्पणियोंमें दिये गये हैं जो पाठान्तरोंकी सूचना आदिसे भिन्न हैं।
हाँ, ग्रन्थपर अर्थ-भावार्थ के रूपमें हिन्दीका एक पूर्वानुवाद जरूर उपलब्ध है, जो मुद्रित प्रतिके साथ प्रकाशित हुआ है, इस मुद्रित प्रतिका परिचय ग्रन्थ-प्रतियोंके परि. चयमें सबसे पहले दिया जा चुका है। यह अनुवाद पं० गजाधरलालजी न्यायतीर्थकृत है और आजसे ५० वर्ष पहले निर्मित होकर सन् १९१८ में मूल ग्रन्थके साथ प्रकाशित हुआ है। इस अनुवादके प्रस्तुत करनेमें पण्डितजीने कितना ही परिश्रम किया जान पड़ता है, जिसके लिए वे धन्यवादके पात्र हैं। परन्तु भाषा, लेखनशैली और प्रतिपादन-पद्धति आदिकी दृष्टिसे वह ग्रन्थ-गौरवके अनुरूप नहीं बन पड़ा। अर्थकी गलतियाँ भी उसमें कितनी ही रही हुई हैं, जिनमें-से कुछ तो प्रायः मूलपाठकी अशुद्धियोंके कारण हुई जान पड़ती हैं, अनुवादकजीको ग्रन्थकी एक ही प्रति प्राप्त होनेसे मूलका ठीक संशोधन उससे नहीं बन सका और इसलिए अनुवादमें वैसी गलतियों का होना प्रायः स्वाभाविक रहा। मूलपाठकी ऐसी अशुद्धियोंको प्रस्तुत भाष्यमें तुलनात्मक टिप्पणियों द्वारा 'मु' अक्षरके अनन्तर दिये हुए पाठान्तरोंसे जाना जा सकता है तथा उनसे होनेवाले अर्थ
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