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________________ योगसार-प्राभृत होने अथवा दोष लगनेपर उसकी प्रतिक्रिया बतलायी है ( १०-११ ) । निराकृतछेद होनेपर यतिको विहारका पात्र ठहराया है ( १२ ), पूर्ण श्रमणताकी प्राप्ति किसको होती है इसे बतलाते हुए ममतारहित, प्रमादचारी, यत्नाचारी तथा परपीडक ज्ञानी साधुओंकी चर्या एवं प्रवृत्तियों का कुछ उल्लेख किया है ( १३-१७ ) और इसके बाद भवाभिनन्दी मुनियोंका स्वरूप देकर उनकी कुछ प्रवृत्तियोंका उल्लेखादि किया है ( १८-२० ) । ३० अयल्नचारी - प्रमादी साधु जीवका घात न होनेपर भी हिंसाका भागी और प्रयत्नचारी - अप्रमादी साधु जीवका घात होनेपर भी रंचमात्र बन्धका भागी नहीं ( २८-३०), इसे बताते हुए दोनोंकी चर्यापर कुछ प्रकाश डाला गया है ( ३१-३२ ) और परिग्रह से ध्रुव बन्धके होने का निर्देश करके एक भी परिग्रहका त्याग किये बिना चित्तशुद्धिका न होना तथा चित्तशुद्धिके अभाव में कर्मविच्युतिका न बन सकना, इन दोनोंको दर्शाया है ( ३४-३५ ) । तदनन्तर जो साधु 'सूत्रोक्त' कहकर कुछ वस्त्र - पात्रादिका ग्रहण करते हैं उनकी उस चर्याको सदोष ठहराया है (३६-४२ ) । साथ ही स्त्रियोंके जिनलिंग-ग्रहणकी योग्यताका अभाव सूचित किया है ( ४३-५० ) और जो पुरुष जिनलिंगको धारण करनेके योग्य हैं उनका स्वरूप दिया है तथा उन व्यङ्गों - भङ्गोंका स्वरूप भी दिया है जो जिनलिंग के ग्रहण में बाधक है (५१-५४) । इसके बाद श्रमणका रूप उसे 'सम-मानस' बतलाते हुए दिया है ( ५५ ) और श्रमणों में 'अनाहार' तथा 'केवलदेह' श्रमणोंका स्वरूप देते हुए ( ५६-५८) उनकी भिक्षाचर्याका निर्देश किया है, जिसमें मधुमांसादिको युक्तिपुरस्सर वर्जित ठहराया है ( ५९-६३ ) । दूसरी भी चर्या-विषयक कुछ विशेषताओंका उल्लेख करके ( ६४-६७ ) साधुके आगमज्ञानकी विशेषता एवं उपयोगिताको दर्शाया है ( ६८-७८ ) । अनुष्ठानके समान होनेपर भी परिणामके भेद से फलमें भेद होता है और वह परिणाम राग-द्वेषादिके भेदसे तथा फलका उपभोग करनेवाले मनुष्योंकी बुद्धिके भेदसे बहुधा भेदरूप परिणमता है ( ७९,८० ) ऐसा निर्देश करते हुए बुद्धि, ज्ञान और असम्मोहके भेदसे सारे कर्मो को भेदरूप प्रतिपादित किया है; इन्द्रियाश्रित ज्ञानको 'बुद्धि,' आगमपूर्वक ज्ञानको 'ज्ञान' और वही ज्ञान जब सदनुष्ठानको प्राप्त होता तो उसे 'असम्मोह' बतलाया है। ( ८१-८२ ) । साथ ही बुद्धादिपूर्वक कर्मोंके फलभेदकी दिशाको सूचित करते हुए बुद्धिपूर्वक कार्योंको संसारफलके प्रदाता, ज्ञानपूर्वक कार्योंको मुक्तिहेतुक और असम्मोहपूर्वक कार्योको निर्वाण-सुख प्रदाता लिखा है ( ८३-८६ ) । इसके बाद भवातीत-मार्गगामियोंका स्वरूप देकर उनके मार्गको सामान्यकी तरह एक ही प्रतिपादित किया है, शब्दभेदके होनेपर भी निर्वाण तत्वको एक ही निर्दिष्ट किया है तथा उसे तीन विशेषणोंसे युक्त बतलाया है और यह घोषित किया है कि असम्मोहसे ज्ञात निर्वाणतन्त्र में कोई विवाद नहीं होता ( ८७-२३) । साथ ही निर्वाण मार्गकी देशनाके विचित्र होनेका कारण भी निर्दिष्ट किया है । ( ९४ ) । अन्तमें इस सब चारित्रको व्यवहारसे मुक्तिका हेतु और निश्चयसे विविक्त चेतनाके ध्यानको मुक्ति बतलाते हुए व्यवहारचारित्रके दो भेद किये हैं- एक निर्वृतिके अनुकूल और दूसरा संसृतिके अनुकूल । जो निर्वृति के अनुकूल है वह जिनभाषित और जो संसृति अनुकूल है ह पर भाषित चारित्र है ( ९५-६७ ) । जिनभाषित व्यवहारचारित्र निर्वृति के अनुकूल कैसे है, इसे बतलाते हुए यह स्पष्ट घोषणा की है कि इस व्यवहारचारित्र के बिना निश्चय चारित्र नहीं बनता (९८-९९), साथ ही इस चारित्रका अनुष्ठाता योगी कैसे सिद्धि-सदनको प्राप्त होता है उसकी स्पष्ट सूचना भी की है ( १०० ) । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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