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प्रस्तावना
२९
जानने के लिए परद्रव्यका जानना आवश्यक, इत्यादि बातोंका निर्देश करते हुए अन्त में योगीका संक्षिप्त कार्यक्रम और उसका फल दिया है (५०)।
(७) सातवें अधिकारमें 'मोक्ष' तत्त्वका निरूपण करते हुए उसका स्वरूप दिया है और उसे 'अपुनर्भव' नामसे निर्दिष्ट किया है (१)। तदनन्तर आत्मामें केवलज्ञानका उदय कब होता है, दोषमलिन आत्मामें उसका उदय नहीं बनता, शुद्धात्माके ध्यान बिना मोहादि दोषोंका नाश नहीं होता, ध्यान-वज्रसे कर्मग्रन्थिका छेद अतीवानन्दोत्पादक इन बातोंको बतलाते हुए (२-६) यह सूचित किया है कि किस केवलीकी कब धर्मदेशना होती है (७, ८)। केवली प्रतिबन्धकका अभाव हो जानेपर किसी भी शेय-विषयमें अज्ञ नहीं रहता (११), देशकालादिका विप्रकर्ष उसके लिए कोई प्रतिबन्धक नहीं (११, १२), ज्ञानस्वभावके कारण आत्मा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी है (१३-१४), केवली किन कर्मोंका कैसे नाश कर निर्वृतिको प्राप्त होता है (१५), निर्वृतिको प्राप्त सुखीभूत आत्मा फिर संसारमें नहीं आता (१८), कर्मका अभाव हो जानेसे पुनः शरीरका ग्रहण नहीं बनता (१९), ज्ञानको प्रकृतिका धर्म मानना असंगत (२०), ज्ञानादि गुणोंके अभावमें जीवकी कोई व्यवस्थिति नहीं बनती (२१-२२) और विना उपाय किये बन्धको जानने मात्रसे कोई मुक्त नहीं होता (२३-२४)।
इसी अधिकारमें जीवके शुद्ध और अशुद्ध ऐसे दो भेद करके कर्मसे युक्त संसारी जीवको अशुद्ध और कर्मसे रहित मुक्तजीवको शुद्ध बतलाया है ( २५-२६ ), शुद्ध जीवको 'अपुनर्भव' कहनेके हेतुका निर्देश किया है (२७)। साथ ही मुक्तिमें आत्मा किस रूपमें रहता है उसे दर्शाया है (२८-२९) और फिर ध्यानका मुख्य फल परब्रह्मकी प्राप्तिको बतलाते हुए उसमें वाद-प्रतिवादको छोड़कर महान् यत्नकी प्रेरणा की है, विविक्तात्माके ध्यानको उसकी प्राप्तिका उपाय बतलाया है (३०-३५) ध्यानविधिसे कर्मोंका उन्मलन कैसे होता है इसे बतलाते हुए ध्यानकी महिमाका कुछ कीर्तन ( ३५-३७) किया है और अध्यात्म-ध्यानसे भिन्न सिद्धिका कोई दूसरा सदुपाय नहीं (४० ) इसे दर्शाते हुए उक्त ध्यानकी बाह्य सामग्रीका निर्देश किया है (४१)। साथ ही ध्यान-प्राप्तिके लिए बुद्धिका आगम, अनुमान और ध्यानाल्यास रससे संशोधन आवश्यक बतलाया है ( ४२ ), आत्मध्यान रतिको विद्वत्ताका परभफल और अशेष शास्त्रोंके शास्त्रीपनको 'संसार' घोषित किया है (४६) मूढचित्त गृहस्थों और अध्यात्मराहत पण्डितोंके संसारका रूप भी निर्दिष्ट किया है (४४)। जो कर्मभूमियाम मनुष्यता और उत्कृष्ट ज्ञानबीजको पाकर भी सद्ध्यानकी खेती करनेमें प्रवृत्त नहीं होते उन्हें 'अल्पबुद्धि' बतलाया है। साथ ही ऐसे मोही विद्वानोंकी स्थितिका कुछ निर्देश भी किया है (४५-४९.)। और फिर ध्यानके लिए तत्वश्रुतिकी उपयोगिता बतलाते हुए भोगबुद्धिको त्याज्य और तत्त्वश्रुतिको ग्राह्य प्रतिपादित किया है (५०-५१)। अन्तमें ध्यानके शत्रु कुतर्कको मुमुक्षुओंके लिए त्याज्य बतलाते हुए (५२.५३ ) मोक्षतत्त्वका सार दिया है (५४) ।
(८) आठवें अधिकारमें उस चारित्रका निरूपण है जो मुमुक्षुके लिए आवश्यक है। सात तत्त्वोंका यथार्थ स्वरूप जान लेनेके अनन्तर जिसके अन्तरात्मामें मोक्षप्राप्तिकी सच्ची एवं तीव्र इच्छा जागृत हो उस विवेक-सम्पन्न मुमुक्षुको घर-गृहस्थीका त्याग कर 'जिनलिङ्ग' धारण करना चाहिए (१), यह बात बतलाते हुए जिनलिंगका स्वरूप दिया है, उसको किस गुरुसे कैसे प्राप्त करके श्रमण बनना चाहिए (४.५) इसका निर्देश करते हुए श्रमणोंके २८ मूल गुणोंके नाम दिये हैं, जिन्हें योगीको निष्प्रमादरूपसे पालन करना चाहिए (६), जो उनके पालनेमें प्रमाद करता है उस योगीको 'छेदोपस्थापक' बतलाया है (८) साथ ही श्रमणोंके दो भेद 'सूरि', 'निर्यापक' का उल्लेख करके उनका स्वरूप दिया है । (९), चारित्रमें छेदोत्पत्ति
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