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________________ योगसार-प्राभृत (२७-३६)। साथ ही कोई वस्तु स्वतः कर्मोंके आस्रव-बन्धका कारण नहीं, वस्तुके निमित्तसे उत्पन्न हुए दोष ही बन्धके कारण होते हैं, इसे बतलाते हुए ( ३९ ) अन्तमें उस जीवका स्वरूप दिया है जो शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्तिका अधिकारी होता है (४०)। (४) चौथे अधिकारमें बन्धका लक्षण देकर और उसे जीवकी पराधीनताका कारण बतलाकर (१) उसके प्रकृति, स्थिति आदि चार भेदों और उनके स्वरूपका निर्देश करते हुए, कौन जीव कर्म बाँधता है और कौन नहीं बाँधता उसका सोदाहरण स्पष्टीकरण किया है (२-८)। साथ ही अमर्त आत्माका मरणादि करने में यद्यपि कोई समर्थ नहीं फिर भी मारणादिके परिणामसे बन्ध होता है, इसे बतलाते हुए (६-१०) मरण-जीवनके प्रश्नपर कितना ही प्रकाश डाला है और तद्विषयक भ्रान्तियोंको दूर किया है। इसके बाद रागी, वीतरागी, ज्ञानी और अज्ञानीके कर्मबन्धके होने न होने आदिका निर्देश करते हुए उनकी स्थितियोंको कुछ प्रदर्शित किया है, ज्ञान और वेदनके स्वरूप-भेदको जतलाया है । ज्ञानी जानता है अज्ञानी वेदता है और इसलिए एक अबन्धक, दूसरा वन्धक होता है। पर-द्रव्यगत-दोषसे कोई वीतरागी बन्धको प्राप्त नहीं होता। कौन रागादिक परिणाम पुण्य-पाप-बन्धके हेतु हैं और पुण्य-पापकी भेदाभेद दृष्टि, इन सबका निरूपण करते हुए अन्त में निवृत्ति-पात्र-योगीका स्वरूप दिया है (४१)। (५) पाँचवें अधिकारमें संवरका लक्षण देकर द्रव्य-भावके भेदसे उसके दो भेदोंका उल्लेख करते हुए उनका स्वरूप दिया है-कपायोंके निरोधको भावसंवर', और कषायोंका निरोध होनेपर द्रव्यकर्मोके आस्रव-विच्छेदको 'द्रव्यसंवर', बतलाया है ( १, २)। कपाय और द्रव्यकर्म दोनोंके अभावसे पूर्ण शुद्धिका होना निर्दिष्ट किया है (३)। कषाय-क्षपणमें समर्थ योगीका स्वरूप देते हुए ( ६, ७) उसकी स्थिरताके लिए कुछ उपयोगी उपदेशात्मक प्रेरणाएँ की गयी हैं, जो काफी महत्त्वपर्ण हैं और जिन्हें संलग्न विषय-सूचीसे भले प्रकार जाना जा सकता है (८-४५)। इसके बाद सामायिकादि षट् कर्मों में जो भक्तिसहित प्रवृत्त होता है उसके संवर बनता है, इसका निर्देश करते हुए छहों आवश्यक कर्मोंका स्वरूप दिया गया है (४६-५३)। . द्रव्यमात्रसे जो निवृत्त-भोगत्यागी-उसके कर्मोंका संवर नहीं बनता, भावसे जो निवृत्त वह वास्तविक संवरका अधिकारी होता है, इसीसे भावसे निवृत्त होनेकी विशेष प्रेरणा की गयी है (५७-५८)। इसके सिवा शरीरात्मक लिंग-वेषको मुक्तिका कारण न बतलाते हुए सभी अचेतन पदार्थ-समूहको मुमुक्षु एवं संवरा के लिए त्याज्य ठहराया है-उसमें आसक्तिका निषेध किया है (५९-६०)। और अन्तमें उस योगीका स्वरूप दिया है जो संवर करता है (६१)। (६) छठा अधिकार निर्जरा तत्त्वसे सम्बन्ध रखता है, जिसमें निर्जराका लक्षण देकर उसके 'पाकजा', 'अपाकजा' नामके दो भेदोंका उल्लेख करते हुए उनके स्वरूपका निर्देश किया है (१-३)। तदनन्तर परम-निर्जराकारक ध्यान-प्रक्रमके अधिकारी साधुका स्वरूप दिया है (४-५), संवरके विना निर्जराको अकार्यकारी बतलाया है (६) और किस योगीका कौन ध्यान कर्मोंको क्षय करता तथा सारे कर्ममलको धो डालता है, किसका तप कार्यकारी नहीं, किसका संयम क्षीण होता है, कौन शुद्धिको प्राप्त नहीं होता, कौन साधु अन्धेके समान है, विविक्तात्माको छोडकर अन्योपासककी स्थिति, निर्मल स्वात्मतीर्थको छोडकर अन्यको भजनेवालोंकी स्थिति, स्वात्म-ज्ञानेच्छुकके लिए परीषहोंका सहना आवश्यक, आत्मशुद्धिका साधन आत्मज्ञान, परद्रव्यसे आत्मा स्पृष्ट तथा शुद्ध नहीं होता, आत्म-द्रव्यको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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