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प्रस्तावना
२७
सारे पुद्गल द्रव्य इस व्यवस्थाको अपने में लिये हुए हैं, इसीलिए 'मूर्तिक' कहलाते हैं ( ३ ) | 'जीव' - सहित ये पाँचों 'द्रव्य' कहलाते हैं; क्योंकि द्रव्यके 'गुणपर्ययवद् द्रव्यं' इस लक्षण से युक्त है (४) । इसके बाद द्रव्यका नियुक्तिपरक लक्षण देकर सब द्रव्योंको सत्तात्मक बतलाया है। और सत्ताका रूप 'tosोत्पादलयालीढा' निर्दिष्ट किया है ( ५-६ ) । सम्पूर्ण पदार्थ समूह पर्यायकी अपेक्षासे उत्पन्न तथा नष्ट होता है - द्रव्यकी अपेक्षासे न कभी कोई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नष्ट (७) | गुणपर्याय बिना कोई द्रव्य नहीं और न द्रव्य के बिना कोई गुण पर्याय कहीं पाये जाते हैं (८) । इसके बाद धर्म-अधर्म और एक जीवके प्रदेशों तथा परमाणुसे आकाश द्रव्य कैसे अवरुद्ध है इसे बतलाते हुए परमाणुका लक्षण दिया है ( ९-१० ) । सब द्रव्यों के प्रदेशोंकी संख्या और उनकी अवस्थितिका निर्देश किया है ( ११-१३ ) और फिर शरीरधारी जीवोंके प्रदेश कैसे संकोच - विस्तारको प्राप्त होते हैं इसे दर्शाया है, जो कि कर्मनिर्मित है और इसीलिए सिद्धों के संकोच - विस्तार नहीं होता (१४) । इसके बाद द्रव्यों का एक दूसरे के प्रति उपकार - अपकारका निर्देश करते हुए मुक्त जीवोंको उससे रहित बतलाया है (१६) | परमार्थ से कोई भी पदार्थ किसीका उपकार - अपकार नहीं करता (१८) ।
तदनन्तर पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अणुके भेदसे चार भेद बतलाकर लोक उनसे कैसे भरा हुआ है, इसे दर्शाया है ( १९-२० ) । सब द्रव्योंके मूर्त-अमूर्तके भेद से दो भेद करके उनका स्वरूप दिया है और फिर कौन पुद्गल किसके साथ कर्मभावको प्राप्त होते हैं, कौन उसमें हेतु पड़ते हैं, जीव और कर्म में कौन किसका कैसे कर्ता होता है । उपादानभावसे एक-दूसरे के कर्तृत्व में आपत्ति, देहादिरूपसे कर्मजनित जितने विकार हैं वे सब अचेतन हैं । मिथ्यात्वादि १३ गुणस्थान भी पौद्गलिक तथा अचेतन हैं, देह-चेतनको एक मानना मोहका परिणाम, जो इन्द्रियगोचर वह सब आत्मबाह्य, जीव कभी कर्मरूप और कर्म कभी जीवरूप नहीं होता, कर्मोदयादि-सम्भव सब गुण अचेतन; इन सब बातोंके निर्देशानन्तर अधिकार को समाप्त करते हुए लिखा है कि जो लोग अजीव तत्त्वको यथार्थ रूपसे नहीं जानते वे चारित्रवान् होते हुए भी उस विविक्तात्माको प्राप्त नहीं होते जो कि निर्दोष है (५०)
( ३ ) तीसरे अधिकार में यह बतलाते हुए कि मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियाँ जब शुभ या अशुभ उपयोगसे वासित होती हैं तो वे सामान्यतः कर्मास्रवकी हेतु बनती हैं ( १ ), मिथ्यादर्शनादिके रूप में आस्रव के विशेष हेतुओंका निर्देश किया है, जिनमें पाँच प्रकारकी बुद्धियों का निर्देश खासतौर से ध्यानमें लेने योग्य है ( २-१७) । उन्हींका कथन करते हुए निश्चय तथा व्यवहारसे आत्मा तथा कर्मके कर्तृत्व-भोक्तृत्वपर प्रकाश डाला है, एकको उपादानरूपसे दूसरेका कर्ता मानने तथा एकके कर्मफलका दूसरेको भोक्ता माननेपर जो आपत्ति घटित होती है उसे दर्शाया है और कषायस्रोतसे आया हुआ कर्म ही जीव में ठहरता है इसे बतलाते हुए निकषाय जीवके कर्मास्रवकी मान्यता तथा एक द्रव्यका परिणाम दूसरे द्रव्यको प्राप्त होनेकी मान्यताको सदोष ठहराया है। इसके बाद कषाय उपयोगसे और उपयोग कपायसे तथा मूर्तिक अमूर्तिकसे और अमूर्तिक मूर्तिकसे उत्पन्न नहीं होते ( २१ ) इसे दर्शाते हुए, कपाय परिणाम किसके होते हैं, और अपरिणामी जीव कौन होता है उसे स्पष्ट किया है (२२-२३) । साथ ही यह निर्धारित किया है कि परिणामको छोड़कर जीव तथा कर्मके एक-दूसरेके गुणों का कर्तृत्व नहीं बनता ( २४-२५) ।
तदनन्तर निरन्तर जो ग्राही जीवका, कर्मसन्तति हेतु अचारित्रका, अचारित्री तथा स्वचारित्र से भ्रष्टका स्वरूप देते हुए, इन्द्रियजन्य सुखको दुःखरूप में स्पष्ट किया गया है
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