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१९२ योगसार-प्राभूत
[अधिकार ८ अनिष्ट योग-जन्य कोई कष्ट नहीं, रोग नहीं, जरा नहीं, बाल-युवा-वृद्धावस्था नहीं, भूखप्यास नहीं, खाना-पीना-सोना-जागना नहीं, कहीं जाना-आना नहीं, किसीसे कोई वार्तालाप नहीं, कोई धन्धा च्यापार नहीं, किसी प्रकारकी साधना-आराधना नहीं, मिट्टी-ईंट-पत्थर-चूने आदिके मकानोंमें रहना नहीं, संसारका कोई सुख-दुःख नहीं, अनित्यता-क्षणभंगुर नहीं; और न किसी प्रकारका कोई विभाव परिणमन है, उस स्व-स्वभाव-स्थित निर्विकार शुद्ध शाश्वत ज्ञानानन्द स्वरूपको 'संसारातीत लक्षण' कहते हैं। इस लक्षणसे युक्त 'निर्वाण' तत्त्व वस्तुतः एक ही है; मोक्ष, मुक्ति, निर्वृति, सिद्धि आदि शब्दभेद अथवा संज्ञा (नाम) भेदके कारण भेद होनेपर भी अर्थका कोई भेद नहीं है-सब नाम तात्त्विक दृष्टिसे एक ही अर्थके वाचक हैं।
यहाँ मोक्ष (निर्वाण ) का जो लक्षण संसारातीत' अर्थात 'भव-विपरीत दिया है वह अपनी खास विशेषता रखता है और उसे सबकी समझमें आने योग्य बना देता है। यद्यपि वह उस लक्षणसे जो मोक्षाधिकारके प्रारम्भमें 'अभावो बन्धहेतूनां' इत्यादि रूपसे दिया है, प्रकट रूपमें भिन्न जान पड़ता है परन्तु वस्तुतः भिन्न नहीं है-उसीका फलितार्थ है। वह दार्शनिकोंकी-शास्त्रियोंकी समझमें आने योग्य बड़ा ही गूढ-गम्भीर तथा, अँचा-तुला लक्षण है और यह सर्वसाधारणकी सहज समझमें आने योग्य खुला एवं सीधा-सादा:लक्षण है। बन्ध और बन्धका कार्य जो संसार उससे मोक्ष विपरीत है । संसाररूप सबके सामने है, जिसे संक्षेपमें ऊपर प्रदर्शित किया गया है, जबकि बन्धके हेतु और सर्व कर्म सामने नहीं हैं, इससे सांसारिक सभी प्रवृत्तियोंके अभावरूप मोक्षको आसानीसे समझा जा सकता है और इसीलिए सर्वसाधारणकी समझ तथा फलितार्थकी दृष्टिसे यह लक्षण बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है।
विमुक्तादि शब्द अन्वर्थक विमुक्तो निर्वृतः सिद्धः परंब्रह्माभवः शिवः ।
अन्वर्थः शब्दमेदेऽपि भेदस्तस्य न विद्यते ।।६०॥ 'विमुक्त, निर्वृत, सिद्ध, परंब्रह्म, अभव तथा शिव शब्द अन्वर्थक हैं। शब्दभेदके होते हुए भी इनमें एकके वाच्यका दूसरेके वाच्यके साथ वास्तवमें अर्थभेद नहीं है।'
व्याख्या-यहाँ निर्वाणको प्राप्त व्यक्तियोंके कुछ नामोंका उल्लेख करके यह बतलाया है कि ये सब नाम अन्वर्थ संज्ञक हैं-नामभेदको लिये हुए होनेपर भी इनमें कोई भी नाम उस निर्वाण तत्त्वके जपभेदकी लिये हुए नहीं है-सबका अभिधेय वही एक निर्वाणतत्त्व है जिसका पिछले पद्यमें उल्लेख किया गया है। विमुक्तिको-विभावपरिणमनमें कारणभूत बन्धनोंसे विशेषतः निवृत्तिको-जो प्राप्त उसे 'विमुक्त' कहते हैं, जो सांसारिक सब प्रवृत्तियोंसे छुटकारा पा चुका है उसे 'निर्वृत' कहते हैं, जिसने सिद्धिको-दोषों-विकारों तथा आवरणोंके अभावरूप स्वात्मोपलब्धिको-प्राप्त कर लिया है उसे 'सिद्ध' कहते हैं, जो सब विभावोंका अभाव कर अपने शुद्ध चिदानन्दमय आत्मस्वरूपमें स्थित हो गया है उसे 'परंब्रह्म' कहते हैं, जो भवके-संसारके-सब प्रपंचोंसे रहित हो गया है अथवा संसारके रूपमें नहीं रहा उसे 'अभव' कहते हैं और जो शिवको--परम सौख्यरूप निर्वाणको अथवा परम-कल्याणको-प्राप्त हो गया है उसे 'शिव' कहते हैं। उक्त नामोंकी इन अर्थोपर-से सबका वाच्य एक ही पाया जाता है और इसलिए इनमें वस्तुतः अर्थ-भेदका न होना सुघटित है।
१. बन्धस्य कार्य: संसारः ( रामसेनाचार्य )। २. मोक्षस्तद्विपरीतात्मा ( समन्तभद्र)।
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