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________________ पद्य ९०-९४] चारित्राधिकार १९३ निर्वाणतत्त्व तीन विशेषणोंसे युक्त तल्लक्षणाविसंवादा निरावाधमकल्मषम् । कार्यकारणतातीतं जन्ममृत्युवियोगतः ॥३१॥ 'उस निर्वाणतत्त्वके लक्षणमें जो विसंवाद-रहित हैं वे उसे "निराबाध'-सब प्रकारकी आकुलतादि बाधाओंसे रहित-'अकल्मष'-सारे कर्ममलोंसे शून्य-और जन्म-मरणका अभाव हो जानेसे 'कार्य-कारणता-से विमुक्त' कहते हैं।' व्याख्या-निर्वाण तत्त्वके उक्त संसारातीत लक्षणमें जिन्हें कोई विवाद नहीं है वे उस निर्वाण तत्त्वको तीन खास विशेषणोंसे युक्त अनुभव करते हैं-एक निराबाध, जिसमें कभी किसी प्रकारसे कोई बाधा नहीं आती, दूसरे अकल्मप, जिसमें कभी किसी प्रकारसे कर्ममलका सम्बन्ध नहीं हो पाता, तीसरे जन्म-मरणका वियोग हो जानेसे जो सदा कार्यकारणतासे रहित रहता है--न कभी किसीका कार्य बनता और न कभी कारण । असम्मोहसे ज्ञात निर्वाण-तत्त्वमें कोई विवाद तथा भेद नहीं होता ज्ञाते निर्वाण-तत्त्वेऽस्मिन्नसंमोहेन तत्वतः । मुमुक्षणां न तद्युक्तौ विवाद उपपद्यते ॥१२॥ सर्वज्ञेन यतो दृष्टो मार्गो मुक्तिप्रवेशकः । प्राञ्जलोऽयं ततो भेदः कदाचिन्नात्र विद्यते ॥१३॥ ___'इस निर्वाणतत्त्वके वस्तुतः असम्मोह ( अभ्रान्त ) रूपसे ज्ञात हो जानेपर मुमुक्षुओंको उसकी युक्ति-योजनामें विवाद उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि सर्वज्ञके द्वारा देखा गया जो मुक्तिप्रवेशक मार्ग है वह प्राञ्जल है-स्पष्ट एवं निर्दोष है--और इसलिए उसमें कभी कोई भेद नहीं है।' व्याख्या--मोक्षतत्वको जबतक असम्मोह ( अभ्रान्त ) रूपसे नहीं जाना जाता तबतक उसमें विवादका होना सम्भव है। आगम-ज्ञानपूर्वक निश्चित रूपसे जान लेनेपर मुमुक्षु को उसमें फिर कोई विवाद उत्पन्न नहीं होता। वे दृढ श्रद्धाके साथ समझते हैं कि सर्वज्ञदेवने मोश्न-प्राप्तिका जो मार्ग-उपाय बन्धके हेतुओं मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका अभाव और मोक्षहेतुओं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रका सद्भाव बतलाया है वह बिलकुल ठीक हैउसमें कभी कोई अन्तर नहीं पड़ता। बन्धहेतुओंके अभावसे नये कर्म नहीं बँधते और मोक्षहेतुओंके सद्भावसे जो तपश्चर्या बनती है उससे संचित सारे कर्मोंकी निर्जरा होकर स्वतः मुक्तिकी प्राप्ति होती है । और इसलिए त्रे निःशंक होकर उस मार्गमें प्रवृत्ति करते हैं। निर्वाणमार्गको देशनाके विचित्र होनेके कारण विचित्रादेशनास्तत्र भव्यचित्तानुरोधतः । कुर्वन्ति सूरयो वैद्या यथाव्याध्यनुरोधतः ॥१४॥ 'उस मुक्तिमार्गके सम्बन्धमें आचार्य महोदय भव्यजनोंके चित्तानुरोधसे नाना प्रकारको देशनाएं उसी प्रकार करते हैं जिस प्रकार वैद्य व्याधियोंके अनुरोधसे नाना प्रकारको १. आ जन्ममृत्योवियोगतः, व्या जन्ममृत्यादियोगतः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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