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प्रस्तावना
गुणगान किया है उन्हें अलंध्यमहिमालय, विमलसत्त्ववान् , रनधी, गुणमणि पयोनिधि और समस्त जनताके सन्तजनोंको अनश्वरी श्रीका प्रदाता लिखा है, जो उनके इसी ग्रन्थकी ओर संकेत जान पड़ता है। साथ ही अपनी 'धर्मपरीक्षा' में उन्हें 'भासिताखिलपदार्थसमूहः', 'निर्मलः' और 'आराधना' में 'शम-यम-निलयः', 'प्रदलितमदनः', 'पदनतसूरिः' ( चरणोंमें नत हैं आचार्य जिनके) जैसे विशेषणोंके साथ स्मरण किया है और जो सब उनके व्यक्तित्वके महत्त्वको ख्यापित करते हैं। वास्तवमें वे ज्ञान और चारित्रकी एक असाधारण मूर्ति थे, उनका जीवन अमली जीवन था, उनकी कथनी और करनीमें कोई अन्तर नहीं था और इसलिए वे अनेक आचार्यांसे भी पूजित-नमस्कृत महामान्य थे। उन्होंने अशेष शास्त्रोंका अध्ययन-मनन कर जो कुछ अनुभव प्राप्त किया और अपनेको जिस साँचेमें ढाला उसका यह ग्रन्थ ज्वलन्त उदाहरण है, जिसका कुछ परिचय आगे दिया जायेगा।
अब देखना है कि ये अमितगति प्रथम किस समय हुए हैं। अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोहको विक्रम संवत् २०५० में पौषशुक्ला पंचमीके दिन बनाकर समाप्त किया है। उसके बाद धर्मपरीक्षाको संवत् १०७० में और पंचसंग्रहको संवत् १०७३ में पूरा किया है । इससे वे विक्रम की द्वितीय-तृतीय शताब्दीके विद्वान जान पड़ते हैं। अतः उनसे दो पीढ़ी पूर्व होनेवाले उनके दादा गुरु नेमिषेणाचार्य के भी गुरु अमितगति प्रथमका समय यदि ४०-५० वर्ष पूर्व मान लिया जाये तो वह कुछ भी अधिक नहीं है-बहुत कुछ स्वाभाविक है। ऐसी स्थितिमें यह ग्रन्थ, जो अमितगति प्रथमकी प्रायः पिछली अवस्थामें निर्मित हुआ है, जब कि वे निःसंगात्मा हो चुके थे, विक्रमी ११वीं शती के प्रारम्भकी अथवा ज्यादासे ज्यादा उसके प्रथम चरणकी-१००१ से १०२५ तककी-रचना जान पड़ती है। इसके बाद उसका समय नहीं हो सकता।
ग्रन्थकी प्रतियोंका परिचय
इस ग्रन्थकी जो प्रति मुझे सबसे पहले प्राप्त हुई वह एक मुद्रित प्रति है, जिसे आजसे कोई ५० वर्ष पहले सन् १९१८ में भारतीय जैन सिद्धान्त प्रकाशिनी संस्थाके महामन्त्री पं० पन्नालालजी बाकलीवालने 'योगसार' नामसे सनातन जैन ग्रन्थमालाके नं० १६ के रूप में, उस्मानाबाद निवासी गान्धी कस्तूरचन्दजीके स्वर्गीय पुत्र बालचन्दजीकी स्मृतिमें पं० गजाधरलालजीके तत्कालीन हिन्दी अनुवादके साथ विश्वकोष प्रेस कलकत्तामें छपवाकर प्रकाशित किया था। यह प्रति कहाँकी हस्तलिखित प्रतिके आधारपर छपवायी गयी ऐसा कहीं कुछ सूचित नहीं किया गया। अन्तु, यह प्रति बड़े साइजके शास्त्राकार खुले पत्रोंपर है और इसकी पृष्ठ-संख्या २१४ है। इस प्रतिको यहाँ ( तुलनात्मक टिप्पणीमें) 'मु' संज्ञा दी गयी है।
इसके बाद हस्तलिखित प्रतियोंकी प्राप्तिका प्रयत्न करनेपर मुझे दो प्रति आमेरके शास्त्रभण्डारकी प्राप्त हुई, जो जयपुरके महावीर भवनमें सुरक्षित हैं। इनमें से एक प्रायः पूरी और दूसरी अधूरी है। पूरी प्रतिका नं० ९३६ है। इसकी पत्रसंख्या ३९ है, पर पहला पत्र नहीं है, जिसका प्रथम पृष्ठ खाली जान पड़ता है; क्योंकि उसमें छह पद्य ही रहे हैं, सातवे पद्यका केवल 'चतु' अंश हो हे । ३९ वें पत्रका द्वितीय पृष्ठ भी खाली था, बादको
१. समारूढे पूतत्रिदिववसति विक्रमनृपे सहा वर्षाणां प्रभवतीह पञ्चाशदधिके । समाप्ते पञ्चम्यामवति
धरणीं मुञ्जनृपती सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ॥९२२॥
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