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________________ २० योगसार- प्राभृत द्वितीयकी ग्रन्थ-प्रशस्तियोंमें स्पष्ट उल्लेख है और जो काष्ठासंघका एक भेद रहा है। इनमें से एकको प्रथम और दूसरेको द्वितीय अमितगति समझना चाहिए। इन दोनों में से कौन-से अमितगतिकी यह कृति है यही यहाँ विचारणीय है । द्वितीय अमितगतिके बनाये हुए सुभाषितरत्नसन्दोह, धर्मपरीक्षा, आराधना, उपासकाचार और पंचसंग्रह नामके अनेक ग्रन्थ हैं, जिनमें ग्रन्थकारने अपनी गुरुपरम्पराका स्पष्ट उल्लेख किया है, और इसलिए वे निश्चित रूपसे अमितगति द्वितीयकी कृति हैं। योगसार- प्राभृत में गुरुपरम्पराका वैसा कोई उल्लेख नहीं है और इसलिए वह द्वितीय अमितगतिकी कृति मालूम नहीं होती; लेखनशैलीकी विभिन्नता और अर्थकी गम्भीरता भी उसके वैसा माननेमें बाधक प्रतीत होती है इसीसे स्व० पं० नाथूरामजी प्रेमी आदि कुछ विद्वानोंने उसके अमितगति द्वितीयकी कृति होनेमें सन्देह व्यक्त किया है और अमितगति प्रथम की कृति होनेकी संभावना व्यक्त की है; परन्तु प्रमाणाभावमें निश्चित रूपसे किसीने भी कुछ नहीं कहा है । यह कृति निश्चित रूपसे अमितगति प्रथमकी कृति है, जिसका प्रमाण अमितगति के साथ 'निःसंगात्मा' विशेषणका प्रयोग है, जिसे ग्रन्थकारने स्वयं अपने लिए प्रयुक्त किया है; जैसा कि ऊपर उद्धृत ९ वें अधिकारके पद्य नं० ८३ के वाक्यसे जाना जाता है । यह विशेषण अमितगति द्वितीयके लिए कहीं भी प्रयुक्त नहीं हुआ; बल्कि स्वयं अमितगति द्वितीयने इस विशेषणको 'त्यक्त- निःशेषसंग : ' रूपमें अमितगति प्रथम के लिए प्रयुक्त किया है; जैसा कि सुभाषितरत्नसन्दोहकी प्रशस्तिके निम्न पद्यसे जाना जाता है और जिससे उक्त निश्चय एवं निर्णयकी भरपूर पुष्टि होती हैआशीविध्वस्त-कन्तोविपुलशमभृतः श्रीमतः कान्तकीर्तेः सूरेर्यातस्य पारं श्रुतसलिलनिधेर्दे वसेनस्य शिष्यः । विज्ञाताशेषशास्त्रो व्रतसमितिभृतामग्रणी रस्त कोपः श्रीमान्मान्यो मुनीनाममितगतियतिस्त्यक्तनिःशेषसंग ः ॥ ९९५ ॥ इस पद्य में अमितगति प्रथमके गुरु देवसेनका नामोल्लेख करते हुए उन्हें 'विध्वस्त कामदेव, विपुलशमभृत, कान्त ( दीप्त) कीर्ति और श्रुतसमुद्रका पारगामी आचार्य लिखा है तथा उनके शिष्य अमितगति योगीको अशेष शास्त्रोंका ज्ञाता, महात्रतों-समितियोंके धारकों में अग्रणी, क्रोधरहित, मुनिमान्य और सारे ( बाह्याभ्यन्तर ) परिग्रहों का त्यागी सूचित किया है ।' पिछला विशेषण सर्वोपरि मुख्य जान पड़ता है, इसीसे अमितगतिने उसे 'निःसंगात्मा' के रूपमें अपने लिए प्रयुक्त किया है । वे इतने अधिक निःसंग हो गये थे कि गुरु-शिष्य तथा संघका भी मोह छोड़ बैठे थे और इसलिए उन्होंने उनका कोई उल्लेख अपने ग्रन्थ में नहीं किया। अमितगति द्वितीयने सुभाषितरत्नसन्दोह के अगले पद्य में भी उनका कितना ही १. काष्ठासंघ चार गच्छों में विभक्त था जिनके नाम है - ( १ ) श्रीनन्दितट, (२) माथुर, (३) बागड, (४) लाङबागड; जैसा कि भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिकी बनायी हुई 'पट्टावली' के निम्न वाक्योंसे जाना जाता है काष्टसंघ भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥ श्रीनन्दितसंज्ञश्च माथुरो बागडोऽभिधः । लाङबागड इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले । २. श्री पं० नाथूरामजीने अपने 'जैन साहित्य और इतिहास में पृ० २८० पर लिखा है- "इसके कर्ता शायद इन अमितगतिके दादा गुरुके गुरु अमितगति हैं ।" यहाँ प्रयुक्त 'शायद' शब्द सन्देहका ही वाचक है | ३. अलङ्घ्यम हिमालयो विमलसत्ववान् रत्नधीर्वरस्थिरं गभीरतो गुणमणिः पयोवारिधिः । समस्त जनतासतां श्रियमनीश्वरी देहिनां सदामृतजलच्युतो विबुधसेवितो दत्तवान् ॥९९६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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