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है । और उस दृष्टि से योगसारका अर्थ हुआ योग-विषयक कथनका नवनीत, सत अथवा श्रेष्ठ अंश | योगसारके साथ 'प्राभृत' शब्दका प्रयोग, जो कि प्राकृतके 'पाहुड' शब्दका पर्यायवाची है, उसे एक तोहफे के रूपमें निर्दिष्ट करता है - यह बतलाता है कि यह किसीको उपहारमें दी जानेवाली एक सारभूत वस्तु है । जयसेनाचार्यने समयसार प्राभृत ( पाहुड) की टीका में इसी बात को निम्न प्रकारसे प्रदर्शित किया है
प्रस्तावना
"यथा कोऽपि देवदत्तः राजदर्शनार्थं किंचित् सारभूतं वस्तु राज्ञे ददाति तत् 'प्राभृतं' भण्यते तथा परमात्माराधक-पुरुषस्य निर्दोष-परमात्मराजदर्शनार्थमिदमपि शास्त्रं प्राभृतम् ।"
अर्थात् -- जिस प्रकार कोई देवदत्त नामक पुरुष राजा के दर्शन करने के लिए कोई सार - भूत वस्तु राजाको भेंट करता है उसे 'प्राभृत' ( तोहफ़ा ) कहते हैं, उसी प्रकार परमात्माराधक पुरुष (ग्रन्थकार) का निर्दोष परमात्मराजका दर्शन करनेके लिए यह शास्त्र भी प्राभृतके रूप में है ।
श्री वीरसेनाचार्य ने 'जयधवला' में प्राभृतका जो रूप दिया है वह इस प्रकार है-“प्रकृष्टेन तीर्थकरेण आभूतं प्रस्थापितम् इति प्राभृतम् । प्रकृष्टराचार्यैविद्यावित्तवद्भिराभृतं धारितं व्याख्यात मानीतमिति वा प्राभृतम् ।"
इसमें बतलाया है कि 'जो प्रकृष्ट पुरुष - तीर्थंकर परमदेव के द्वारा प्रस्थापित हुआ वह प्राभृत है, अथवा जो विद्याधनके धनी प्रकृष्ट उत्तमाचार्योंके द्वारा धारित व्याख्यात तथा आनीत ( परम्परासे आगत ) हुआ है वह भी 'प्राभृत' है । इससे 'प्राभृत' शब्द प्रतिपाद्यविषयकी प्राचीनता और समीचीनताको लिये हुए जान पड़ता है ।
इस तरह यह ग्रन्थनाम और ग्रन्थनामके महत्त्वका संक्षिप्त परिचय है । प्रस्तुत ग्रन्थ पद-पदपर अपने नाम के महत्त्वको हृदयंगम किये हुए है। जैन समाज में कितने ही ग्रन्थ सारान्त नामको लिये हुए हैं; जैसे प्रवचनसार, गोम्मट्टसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार, तत्त्वार्थसार आदि और कुछ पाहुड अथवा प्राभृतान्त भी हैं, जैसे कुन्दकुन्दाचार्य के हंसणपाहुड ( दर्शनप्राभृत) आदि । परन्तु यह ग्रन्थ 'सार' और 'प्राभृत' दोनों विशेषणोंको एक साथ आत्मसात किये हुए है और यह इसकी एक विशेषता है ।
ग्रन्थकार अमितगति और उनका समय
इस ग्रन्थके कर्ता-निर्माताका नाम 'अमितगति' है; जैसा कि ग्रन्थ के अन्तिम पद्यसे पूर्वस्थित ८३ वें पद्य में प्रयुक्त हुए निम्न वाक्यसे जाना जाता है
निःसंगात्मामितगतिरिदं प्राभृतं योगसारं ब्रह्मप्राप्त्यै परममकृतम् ।
इसमें बतलाया है कि 'इस योगसार- प्राभृतको निःसंगात्मा अमितगतिने परब्रह्मकी प्राप्ति के लिए रचा है।' इससे पूर्व के एक पद्य नं० ८१ में भी, 'विज्ञायेत्थं विचिन्त्यं सदमितगतिभिस्तत्त्व मन्तःस्थमग्र्यम्' आदि वाक्योंमें प्रयुक्त 'सदमितगतिभिः' पदके द्वारा ग्रन्थकारने अपने 'अमितगति' नामकी सूचना की है।
दिगम्बर जैन समाज में 'अमितगति' नामके दो आचार्य हो गये हैं- एक माधवसेन सूरके शिष्य तथा नेमिषेणाचार्य के प्रशिष्य और दूसरे नेमिषेणाचार्य के गुरु तथा देवसेनसूरिके शिष्य । ये दोनों ही अमितगति माथुर संघ से सम्बन्ध रखते हैं, जिसका अमितगति
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