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________________ २२ योगसार-प्राभृत उसपर किसीने गद्यपूर्वक अधःप्रवृत्तकरणादि-विषयक कुछ गाथाएँ उद्धृत की हैं। और अन्तमें “अथ त्रयोविंशतिपुद्गलवर्गणा गाथा" लिखकर पाँच गाथाएँ और उद्धृत की हैं। इस प्रतिके पत्रोंका आकार ८१ इंच लम्बा और ३३ इंच चौड़ा है। द्वितीय पत्रके प्रथम पृष्ठपर ११ पंक्ति हैं, शेष ग्रन्थके प्रत्येक पृष्ठपर ९ पंक्तियाँ हैं और प्रत्येक पंक्ति में अक्षर प्रायः २६ से २८ तक हैं। लिपि प्रायः अच्छी और स्पष्ट है, पद्यांक सु/से दिये हुए हैं और कहीं-कहीं टिप्पणी भी हाशियोंपर अंकित है जो प्रायः बादकी जान पड़ती है। इस प्रतिके बीचमें दो पत्र नं. १५, १९ बहुत पुराने हैं। जान पड़ता है जिस प्रतिके वे पत्र हैं उसीपर-से, उसके अतिजीर्ण हो जानेसे यह प्रति करायी गयी है, जिसमें अक्षरोंका प्रति पंक्ति-क्रम पुरानी प्रतिके अनुसार ही रखा गया है, इसीसे उक्त दो पत्रोंका सम्बन्ध ठीक जुड़ गया है। है। इस प्रतिके अन्तमें कोई लिपिकाल दिया हुआ नहीं है। अन्तिम पुष्पिका वाक्यका रूप इस प्रकार है। __ “इति श्री अमितगति आचार्य विरचिते योगसार तत्त्वप्रदीपका नवाधिकार- समाप्ताः ॥छ।श्रीश्री॥श्री॥" मध्यके सन्धिवाक्य "इति जीवाधिकारः समाप्तः, इति अजीवाधिकारः, इति आस्रवाधिकारः" इत्यादि रूपमें दिये गये हैं। यह प्रति मुद्रित प्रतिकी अपेक्षा विशेष शुद्ध नहीं है, कहीं-कहीं कुछ शुद्ध है, कहीं-कहीं स-श, न-ण, व-ब, य-ज आदिका ठीक भेद नहीं रखा गया-एकके स्थानपर दूसरा अक्षर लिखा गया है। दूसरी अधूरी-खण्डित प्रतिका नं० ९३७ है। इसमें प्रारम्भके १९ पत्र और अन्तका ३१वाँ पत्र (लेखक-प्रशस्त्यात्मक ) नहीं है । ३८वें पत्रके अन्त में ग्रन्थ समाप्त करते हुए जो कुछ लिखा है वह इस प्रकार है "एवं अधिकारः समाप्तः ॥छ॥१॥ इति श्री अमितगति विरचित नवाधिकारः समाप्तः ॥ योगसार नामेति वा ॥छ॥छ।" ___ "संवत् १५८६ वर्षे कार्तिगशुदि २ श्री मूलसंघे नन्द्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ० श्री पद्मनन्दिदेवाः तत्पट्टे भ० श्री शुभचंद्रदेवाः तत्स्ट्टे भ० श्रीजिनचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ० श्री प्रभाचंद्रदेवाः तत् शिष्य मंडलाचार्य श्री धर्मचं..." इसके आगे ३१वें पत्रपर धर्मचंद्रके विषयका, उनकी प्रेरणासे अमुकने यह ग्रन्थ लिखाया और अमुकने लिखा ऐसा कुछ उल्लेख होना चाहिये। इस प्रातक पत्रोंका आकार ११३ इंच लम्बा और ५ इंच चौड़ा है, प्रति प्रष्ट ९ पंक्तियाँ और प्रति पंक्ति प्रायः ३७-३८ अक्षर हैं। इस प्रतिके हाशियोंपर भी टिप्पणियाँ हैं, जो प्रायः प्रति नं० ९३६ की टिप्पणियोंसे मिलती-जुलती हैं-कुछ अधिक भी हैं और इससे अनुमान होता है कि किसी पूर्व प्रतिमें ये टिप्पणियाँ चलती थीं, उसपर-से इनका सिलसिला चला तथा उसमें वृद्धिको भी अवसर मिला है। लिपिकारों के सामने ऐसी प्रतियाँ थीं; क्योंकि टिप्पणियोंके बहुधा अक्षर लिपिकारके अक्षरोंसे मिलते-जुलते हैं। ___ यह प्रति ७वें अधिकारके ४१-४२वें पद्यसे चालू हुई है-४५वें पद्यका “यः षोढा सामग्रीयं बहिर्भवा" यह अन्तिम चरणांश इसपर अंकित है और प्रति नं० ९३६ की अपेक्षा अधिक शुद्ध जान पड़ती है। इसको यहाँ 'आद्वि' संज्ञा दी गयी है । ये दोनों प्रतियाँ अपनेको अक्तूबर १९६३ में श्री पं० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल जैन एम० ए० अध्यक्ष महावीरभवन जयपुरके सौजन्यसे प्राप्त हुई थीं, जिनके लिए मैं उनका आभारी हूँ। जयपुर में जहाँ अनेक अच्छे बड़े शास्त्रभण्डार हैं, इस ग्रन्थकी दूसरी कोई प्रति उपलब्ध नहीं है, ऐसा उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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