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________________ पद्य ६३-६४ 1 चारित्राधिकार जं हवदि अणव्वीयं णिवट्ठियं फासूयकयं चेव । णाऊ ण एसणीयं तं भिक्खं मुणी पडिच्छंति ॥९-६०॥ टीका - यद्भवत्यबीजं निर्बीजं निर्वतयं निर्गतमध्यसारं प्रासुककृतं चैव ज्ञात्वाशनीयं तद्भैक्ष्यं मुनयः प्रतीच्छन्तीति ॥ पके इन दोनों गाथाओं में से पहलीमें लिखा है कि 'जो फल कन्द मूल तथा बीज अग्निसे हुए नहीं हैं तथा और भी जो कुछ कच्चे पदार्थ हैं उन सबको 'अनशनीय' ( अभक्ष्य ) समझकर धीरवीर मुनि भोजन के लिए ग्रहण नहीं करते हैं।' दूसरी गाथा में यह बतलाया है कि 'जो बीजरहित हैं, जिसका मध्यसार ( जलभाग ) निकल गया है अथवा जो प्रासुक किया गया है ऐसे सब वनस्पतिकाय पदार्थोंको अशनीय ( भक्ष्य ) समझकर मुनिजन भिक्षा में ग्रहण करते हैं।' १८३ मूलाचार के इस कथन से यह स्पष्ट है और अनशनीय कन्द-मूलोंका 'अनग्निपक्व' विशेषण इस बात को साफ बतला रहा है कि जैन मुनि कच्चे कन्द-मूल नहीं खाते, परन्तु अग्नि में पकाकर शाक-भाजी आदि के रूप में प्रस्तुत किये हुए पदार्थोंको भी भोजन में ग्रहण कर लेनेका उनके लिए विधान है । यद्यपि अनग्निपक्व भी प्रासुक होते हैं, परन्तु प्रासुककी सीमा उससे कहीं अधिक बढ़ी चढ़ी है। उसमें सुखाये, तपाये, खटाई - नमक मिलाये और यन्त्रादिकसे छिन्न-भिन्न किये हुए सचित्त पदार्थ भी शामिल होते हैं; जैसा कि निम्नलिखित शास्त्र प्रसिद्ध गाथासे प्रकट है -- सुक्कं पक्कं तत्तं अंविल-लवणेण मिस्सियं दव्वं । जं जंतेण छिण्णं तं सव्वं फासूयं भणियं ॥ प्रासु के इस लक्षणानुसार जैन मुनि अनिपक्व के अतिरिक्त दूसरी अवस्थाओं द्वारा प्रासुक हुए कन्द-मूलों को भी खा सकते हैं; क्योंकि वे 'अनेषणीय' की कोटिसे निकलकर 'एषणीय' की कोटि में आ जाते हैं । हस्तगत पिण्ड दूसरे को देकर भोजन करनेवाला यति दोषका भागो 'पिण्डः पाणि- गतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते । दीयते चेन् न भोक्तव्यं भुङ क्ते चेद् दोषभाग् यतिः ||६४ || Jain Education International 'साधुके हाथमें पड़ा हुआ आहार दूसरेको देनेके योग्य नहीं होता ( और इसलिए नहीं दिया जाता ) यदि दिया जाता है तो साधुको फिर भोजन नहीं लेना चाहिए, यदि वह साधु अन्य भोजन करता है तो दोषका भागी होता है ।' व्याख्या -- साधुके हाथ में पड़ा हुआ आगमसे अविरुद्ध योग्य आहार (भोजनका ग्रास) किसी दूसरे को देने के योग्य नहीं होता । यदि वह साधु अपनी रुचि तथा पसन्दका न होने के कारण उसे स्वयं न खाकर किसीको देता है— या किसी अन्यको खाने के निमित्त कहीं रख देता है - तो उस साधुको फिर और भोजन नहीं करना चाहिए, यदि वह दूसरा भोजन करता है तो दोषका भागी होता है - सम्भवतः 'यथालब्ध' शुद्ध भोजन न लेने आदिका उसे दोष लगता है। १. यया शुष्क पक्व ध्वस्ताम्ललवण संमिश्र दग्धादिद्रव्यं प्रासुकं इति । गोम्मटसारटीकायाम् । २. अcase विडं पाणिगयं णेव देयमण्णस्स । दत्ता भोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पडिकुट्टो ।।३-३० ( क ) ।। —प्रवचनसार । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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