________________
योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ८
व्याख्या - यहाँ प्रथम पद्य में मधुके दोषोंको दर्शाया है और दूसरे पद्य में अन्य अग्राह्य पदार्थोंकी कुछ सूचना की गयी है। मधु वर्जनीय बतलाते हुए उसके दो विशेषणोंका उल्लेख किया गया है - एक तो यह कि वह बहुत जीवोंके घातसे उत्पन्न होता है, दूसरा यह कि वह बहुत जीवों की उत्पत्तिका स्थान है - बहुत जीव उसमें उत्पन्न होते रहते हैं । अपने इन दोनों गुणों के कारण मधुका सेवन असंयमका जनक है और इसलिए जो साधु संयमका भंग होनेसे भय रखते हैं वे मन-वचन-कायसे तथा कृत-कारित अनुमोदनासे मधुका त्याग करते हैं । मधु, जिसका त्याग यहाँ विवक्षित है, वह पदार्थ है जिसे मधुमक्खियाँ पुष्पोंसे लाकर अपने छत्तों में संचय करती हैं और जो बाद में प्रायः छत्तोंको तोड़-मरोड़ कर मनुष्यों के खाने के लिए प्रस्तुत किया जाता है और जिसके इस प्रस्तुतीकरणमें मधुमक्खियों को भारी बाधा पहुँचती है, उनका तथा उनके अण्डे बच्चोंका रसादिक भी निचुड़कर उसमें शामिल हो जाता है और इस तरह जो एक घृणित पदार्थ बन जाता है । 'क्षौद्र' संज्ञा भी उसे प्रायः इस प्रक्रियाकी दृष्टिसे ही प्राप्त है । इस प्रक्रियासे उत्पन्न हुआ मधु अपने प्रथम विशेषण 'बहुजीवप्रघातोत्थं' को सार्थक करता है और इस प्रकारसे उत्पन्न हुआ घृणित मधु स्वभाव से ही बहुत-से जीवोंकी उत्पत्तिका स्थान होनेके कारण उसपर दूसरा विशेषण भी सहज घटित हो जाता है । परन्तु जो मधु उक्त प्रक्रिया से - मधुमक्खियोंके छत्तोंको तोड़मरोड़ - निचोड़कर - उत्पन्न नहीं होता किन्तु सहज स्वभावसे टपकता हुआ ग्रहण किया जाता है अथवा आजकल मधुमक्खियोंके पालनकी जो प्रथा प्रचलित हुई है उसके अनुसार मधुमक्खियों तथा उनके अण्डे बच्चोंको कोई कष्ट पहुँचाये बिना तथा उनके भोजनकी पूरी व्यवस्था रखकर जो मधु उनके छत्तोंसे यत्नपूर्वक ग्रहण किया जाता है उसपर प्रथम विशेषण लागू नहीं होता; तब दूसरा विशेषण लागू होता है या नहीं, यह विचारणीय है । इस विपयकी छानबीन करनेपर श्री अमृतचन्द्राचार्यका निम्नवाक्य उसके समाधान रूपमें पाया जाता है।
१८२
इसमें बतलाया है कि जो मधु मधुछत्तेसे स्वयं झरता हो अथवा जिसे छत्तेसे छलपूर्वक ग्रहण किया गया हो उसके सेवनसे भी तदाश्रित जीवोंका घात होनेके कारण हिंसाका दोप लगता है। इससे मालूम होता है कि मधुके आश्रय में सूक्ष्म जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है इसीसे उसको यहाँ 'बहुजीवोद्भवास्पदम्' विशेषण दिया गया है । अपने में बहुतसे जीवों की उत्पत्तिको लिये हुए होनेसे मधु खानेके योग्य नहीं-खानेसे उन जीवोंकी हिंसा होती है और इसलिए प्रथम विशेषणके अभाव में भी उसका खाना निषिद्ध है ।
स्वयमेव विगलितं यो गृह्णीयाद्वा छलेन मधु-गोलात् ।
तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रय-प्राणिनां घातात् ॥७०॥ - पुरुषार्थसिद्धयुपाय
जिन कन्द-मूलादिका यहाँ निषेध किया गया है उनका 'अनेषणीय' विशेषण खास तौर से ध्यान में लेने योग्य है । इसका तथा इसके प्रतिपक्षी 'एषणीय' विशेषणका अच्छा खुलासा मूलाचारकी निम्न दो गाथाओं और उनकी वसुनन्दी आचार्यकृत टीकासे हो जाता है
-
Jain Education International
फलकंद मूलबीय अणग्गिपवकं तु आमयं किंचि ।
णच्चा अणेसणीयं ण वि य पडिच्छंति ते धीरा ॥९-५९ ॥
टीका - फलानि कन्द-मूलानि बीजानि चाग्निपक्वानि न भवन्ति यानि अन्यदपि आमकं यत्किंचिदनशनीयं ज्ञात्वा नैव प्रतीच्छन्ति नाभ्युपगच्छन्ति ते धीराः ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org