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________________ १८४ योगसार प्राभृत बाल-वृद्धादि यतियोंको चारित्राचरणमें दिशा बोध "बालो वृद्धस्तपोग्लानस्तीवव्याधि-निपीडितः । तथा चरतु चारित्र मूलच्छेदो यथास्ति नो ॥ ६५ ॥ 'जो साधु बालक हो, वृद्ध हो, महोपवासादिक अनुष्ठान करनेवाला तपस्वी' हो, रोगादिकसे कृश शरीर अथवा किसी तीव्र व्याधिसे पीड़ित हो उसे चारित्रको उस प्रकारसे पालन करना चाहिए जिससे मूलगुणोंका विच्छेद अथवा चारित्रका मूलतः विनाश न होने पावे ।' व्याख्या - युवक, नीरोग तथा अश्रान्त साधुकी बातको छोड़कर जो साधु बाल-वृद्धरोगादिकी अवस्थाओंको लिये हुए हों उनके विषय में यहाँ यह नियम किया गया है कि वे चारित्र के अनुष्ठान में उस प्रकारसे प्रवृत्त हों जिससे मूल गुणरूप संयमकी विराधना न होने पावे – उसकी रक्षा करते हुए अपनी कमजोरी के कारण वे और जो चाहें रिआयतें प्राप्त कर सकते हैं । मूल चारित्रका यदि भंग होगा तब तो वे पुनः दीक्षा के योग्य ठहरेंगे । स्वल्पलेपी यति कब होता है। 'आहारमुपधिं शय्यां देशं कालं बलं श्रमम् । वर्तते यदि विज्ञाय 'स्वल्पलेपो' यतिस्तदा ||६६॥ [ अधिकार ८ 'यदि साधु आहार, परिग्रह ( उपकरण )' शयन, देश, काल, बल और श्रमको भले प्रकार जानकर प्रवृत्त होता है तो वह अल्पलेपी होता है-थोड़ा कर्मबन्ध करता है। व्याख्या - यहाँ ' उपधि' शब्द बाल-वृद्ध - श्रान्त-ग्लानसम्बन्धी शरीर मात्र परिग्रहका वाचक है, और 'आहार' भिक्षामें आमतौरपर मिलनेवाले भोजनको समझना चाहिए । जो बाल-वृद्धादि साधु अपने आहार, शरीर, शय्या संस्तर, देश, काल, बल और श्रमकी स्थितिको भले प्रकार जानकर तदनुकूल भद्र आचरणको अपनाता है वह अल्प कर्मबन्धका कर्ता होता है । Jain Education International तपस्वीको किस प्रकारके काम नहीं करने संयम हीयते येन येन लोको विराध्यते । ज्ञायते येन संक्लेशस्तन्न कृत्यं तपस्विभिः || ६७॥ 'जिसके द्वारा संयम की हानि हो, जिसके द्वारा लोकको पीड़ा पहुँचती हो तथा जिसके द्वारा संक्लेश मालूम पड़े वह काम तपस्वियों - साधुओं को नहीं करना चाहिए ।' १. बालो वा बुड्ढो वा समभिहदो वा पुणो गिलाणो वा । चरियं चरदु सजोग्गं मूलच्छेदो जधा ण हवदि ॥३-३०॥ प्रवचनसार । २. महोपवासाद्यनुष्ठायी तपस्वी ( सर्वार्थसि० ) । ३. आहारे व विहारे देतं कालं समं खमं उवधि । जाणित्ता ते समणो वट्टदि जदि अप्पलेवी सो ॥३-३१॥ प्रवचनसार । ४. वाल-वृद्ध श्रान्त-ग्लान-सम्बन्धिनं शरीरमात्रोपधि परिग्रहमिति । - प्रवचनसार टीका जयसेनोया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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