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________________ १७० योगसार-प्राभृत [ अधिकार ८ इसमें बतलाया है कि हे मुनि ! वस्त्रको त्यागने मात्रसे ही क्या कोई मुनि हो जाता है, क्या इस भूतलपर काँचलीके छोड़नेसे कोई सर्प निर्विष हुआ है ? अन्तःशुद्धिके बिना बाह्य-शुद्धि अविश्वसनीय अन्तःशुद्धि विना बाह्या न साश्वासकरी मता। धवलोऽपि बको बाघ हन्ति मीनाननेकशः ॥३२॥ 'अन्तरंगको शुद्धिके बिना बाह्यशुद्धि विश्वासके योग्य नहीं होती। बगुला बाह्यमें धवलउज्ज्वल होनेपर भी ( अन्तरंग शुद्धिके अभावमें ) अनेक मछलियोंको मारता रहता है।' व्याख्या-अन्तःशुद्धिके बिना बाह्यशद्धि विश्वासका कारण नहीं होती, इस बातको स्पष्ट करते हुए यहाँ बगुलेका दृष्टान्त दिया गया है जो बाह्यमें स्वच्छ धवल होते हुए भी अन्तरंगमें मलिनताके कारण अनेक मछलियोंको मारा करता है। उसकी इस अन्तःशुद्धिविहीन कपट वृत्तिको लेकर ही किसी कविने कहा है 'उज्ज्वल वर्ण अधीन गति एक चरण दो ध्यान । मैं जाना कोई साधु है, निरी कपट की खान ॥' इसीसे जिन साधुओंका अन्तरंग शुद्ध नहीं होता उन्हें 'बगुला भगत' कहा जाता है। उनका विश्वास नहीं किया जाता, जो भूलसे विश्वास कर बैठता है वह ठगाया जाता है हानि उठाता है। प्रमादो तथा निष्प्रमादी योगी की स्थिति 'योगी पट्स्वपि कायेषु सप्रमादः प्रबध्यते । सरोजमिव तोयेषु निष्प्रमादो न लिप्यते ॥३३।। 'जो योगी षट्कायके जीवोंमें प्रमादसे प्रवृत्त होता है वह कर्मोंसे बँधता है और जो प्रमादसे प्रवृत्त नहीं होता वह कर्मोंसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जिस प्रकार जलमें कमल।' व्याख्या-संसारी जीव त्रस-स्थावरके भेदसे दो प्रकारके होते हुए भी कायकी दृष्टिसे छह प्रकारके हैं—पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पतिके शरीरको धारण करनेवाले-पाँच प्रकारके एक इन्द्रिय स्थावर जीव होते हैं और दो इन्द्रियादि रूप त्रस शरीरको धारण करनेवाले त्रस जीव कहलाते हैं । इन छहो प्रकारके देहधारी जीवोंके प्रति जो योगी प्रमादसे प्रवृत्त होता है वह हिंसाके दोषका भागी होकर कर्मके बन्धनको प्राप्त होता है और जिसकी प्रवृत्ति प्रमादरूप न होकर यत्नाचारको लिये हुए होती है वह जलमें कमलके समान निर्लेप रहता है-कर्मबन्धको प्राप्त नहीं होता। १. अयदाचारो समणो छम्म वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्वं कमलं व जले णिरुवलेवो ॥३-१८॥ -प्रवचनसार । २. आ पडपि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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