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पद्य २८-३१] चारित्राधिकार
१६९ पूर्व कथन का स्पष्टीकरण पादमुत्क्षिपतः साधोरीर्यासमिति-भागिनः । यद्यपि म्रियते सूक्ष्मः शरीरी पाद-योगतः ॥२६॥ तथापि तस्य तत्रोक्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि नागमे ।
प्रमाद-त्यागिनो यद्वनिमूस्य परिग्रहः ॥३०॥ 'यद्यपि ईर्यासमितिसे युक्त-भले प्रकार देखभालकर सावधानीसे चलते हुए-- योगीके पैरको उठाकर रखते समय ( कभी-कभी) सूक्ष्म जन्तु पैरतले आकर मर जाता है तथापि जिनागममें उस प्रमादत्यागी योगीके उस जीवघातसे सूक्ष्म भी बन्धका होना नहीं कहा गया है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि मूर्छा-ममतारहितके परिग्रह नहीं कहा गया।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जो कुछ कहा गया है उसीको इन दोनों पद्योंमें उदाहरणके साथ स्पष्ट करके बतलाया गया है। एक साधु ईर्यासमितिसे चार हाथ आगे तककी भूमिको देखता--शोधता हुआ इस सावधानीके साथ मन्दगतिसे चला जा रहा है कि किसी जीवके ऊपर उसका पैर न पड़ जाये, फिर भी कोई सूक्ष्म जीव पैरको उठाते समय अचानक इधरउधरसे आकर पैरके नीचे आ जाता और मर जाता है तो उस जीवके बन्धका सूक्ष्म भी पापबन्ध जैनागमकी दृष्टिसे उस प्रमादरहित साधुको नहीं होता है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि मूर्छा ( ममत्वपरिणाम ) से रहितके परिग्रहका'दोप नहीं लगता; क्योंकि 'मूर्छा परिग्रहः परिग्रहका लक्षण ही मूर्छा कहा गया है और 'मुर्छा तु ममत्व-परिणामः' इस लक्षणके अनुसार मूर्छा ममत्व-परिणामका नाम है। इसीसे समवसरण-जैसे महाविभूतिके होते हुए भी ममत्व-परिणामके जनक मोहनीय कर्मका अभाव हो जानेसे तीर्थकर परमदेव परिग्रह के शेपसे अलिप्त रहते हैं।
अन्तरंग परिग्रहको न छोड़कर बाह्य को छोड़नेवाला प्रमादी प्रमादी त्यजति ग्रन्थं बाह्य मुक्त्वापि नान्तरम् ।
हित्वापि कञ्चकं सर्पो गरलं न हि मुश्चते ॥३१॥ 'जो प्रमादी ( मुनि ) है वह अन्तरंग परिग्रहको न छोड़ते हुए भी बाह्य परिग्रहको छोड़ता है। ( ठीक है. ) सर्प काँचलीको छोड़कर भी विषको नहीं छोड़ता।'
व्याख्या-जो राग-द्वेप-काम-क्रोधादि अन्तरंग-परिग्रहोंका त्याग न करके वस्त्रादि बाह्य परिग्रहोंका त्याग करता है उस निर्ग्रन्थ साधुको यहाँ 'प्रमादी' बतलाया है, वह गरल ( विष ) को न छोड़कर काँ चली छोड़नेवाले सर्प के समान होता है। ऐसे ही निर्ग्रन्थ मुनियोंको लक्ष्य करके श्री मल्लिपेणाचार्यने सज्जनचित्तवल्लभमें लिखा है :
किं वस्त्र-त्यजनेन भो मुनिरसावेतावता जायते क्ष्वेडेन च्युतपन्नगो गतविषः किं जातवान् भूतले ॥
१. उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए । आबाधेज्ज कुलिंग मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ॥१८॥१॥ ण हि तस्म तणिमित्तो बंधो सुहमो यदेसिदो समये । मुच्छापरिगहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ।।१८।२।। -प्रवचनसार अ०३ । २. आद्वि तत्रोक्तम् ।
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