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________________ १६८ [ अधिकार योगसार-प्राभृत हिंसा पापका बन्ध किसको और किसको नहीं 'अयत्नचारिणो हिंसा मृते जीवेऽमृतेऽपि च । प्रयत्नचारिणो बन्धः समितस्य वधेऽपि नो ॥२८॥ 'जो यत्नाचाररहित (प्रमादी ) है उसके जीवके मरने तथा न मरनेपर भी हिंसा होतो है और जो ईर्यादि समितियोंसे युक्त हुआ यत्नाचारी है उसके जीवका घात होनेपर भी ( हिंसा कर्मका ) बन्ध नहीं होता।' व्याख्या-मोक्षमार्गके अंगभूत सम्यक चारित्रमें हिंसाकी पूर्णतः निवृत्तिरूप अहिंसा महावतकी प्रधानता है, उस अहिंसा महाव्रतकी मलिनताका विचार करते हुए यहाँ सिद्धान्तरूपमें एक बड़े ही महत्त्वकी सूचना की गयी है और वह यह कि हिंसा-अहिंसाका सम्बन्ध किसी जीवके मरने-न-मरने (जीने ) पर अवलम्बित नहीं है, कोई जीव न मरे परन्तु जो अयत्नाचारी-प्रमादी है उसको हिंसाका दोष लगाकर महाव्रत मलिन होता ही है और जो प्रयत्नपूर्वक भार्ग शोधता हुआ सावधानीसे चलता है, फिर भी उसके शरीर से किसी जीवका घात हो जाता है तो उस जीव घातका उसको कोई दोष नहीं लगता और इससे उसका अहिंसा महाव्रत मलिन नहीं होता। सारांश यह निकला कि हमारा अहिंसात्रत हमारी प्रमादचर्यासे मलिन होता है किसी जीवकी मात्र हिंसा हो जानेसे नहीं। अतः साधुको अपने व्रतकी रक्षाके लिए सदा प्रमादके त्यागपूर्वक यत्नाचारसे प्रवृत्त होना चाहिए। इस विषयमें श्री अमृतचन्द्र सूरिके निम्न हेतु-पुरस्सर-वाक्य सदा ध्यानमें रखने योग्य है:-- युक्तावरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि। न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥४५॥ व्युत्थानावस्थायां रागादीनां वशप्रवृत्तायाम् । म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥४६॥ यस्मात्सकषायः सन हन्त्यात्मा प्रथममात्मनात्मानम । पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु ॥४७॥ -पुरुषार्थसिद्धयुपाय इनमें बतलाया है कि 'जो साधु यत्नाचारसे प्रवृत्त हो रहा है उसके रागादिके आवेशका अभाव होनेसे किसीका प्राणव्यपरोपण हो जानेपर भी कभी हिंसा नहीं होती। रागादिके वश प्रवृत्त होनेवाली प्रमादोवस्थामें तो कोई जीव मरे या न मरे हिंसा आगेआगे दौड़ती हुई चलती है--निश्चित रूपसे हिंसा होती ही है। क्योंकि जो जीव कषायरूप प्रवृत्त होता है वह पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता है पश्चात् दूसरे जीवोंका घात हो या न हो--यह उनके भविष्यसे सम्बन्ध रखता है। १. मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा। पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामेतेण समिदस्स ।।३-१७॥ -प्रवचनसार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org..
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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