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________________ १७१ पद्य ३२-३५] चारित्राधिकार जीव घात होनेपर बन्ध हो न भी हो, परिग्रहसे उसका होना निश्चित 'साधुर्यतोऽङ्गियातेऽपि कर्मभिर्वध्यते न वा । उपधिभ्यो ध्रुवो बन्धस्त्याज्यास्तैः सर्वथा ततः ॥३४॥ 'कि कायचेष्टाके द्वारा जीवका घात होनेपर भी साधु (कभी तो प्रमादरूप अशुद्ध उपयोगोंके कारण ) कर्मोंसे बंधता है और कभी ( अप्रमादरूप शुद्ध उपयोगके कारण ) नहीं भी बँधता; परन्तु परिग्रहोंके द्वारा तो निश्चित बन्ध होता है इसलिए साधुओंके द्वारा परिग्रह सर्वथा त्याज्य है।' व्याख्या--कायचेष्टासे जीवका घात होनेपर तो बन्धके विषयमें अनेकान्त है, वह कभी होता है और कभी नहीं भी होता। अन्तरंगमें यदि प्रमादरूप अशुद्ध उपयोगका सद्भाव है तो होता है और सद्भाव नहीं किन्तु अभाव है तो बन्ध नहीं होता, परन्तु परिग्रहके विषयमें बन्धका अनेकान्त नहीं किन्तु एकान्त है-वह अवश्य ही होता है। इसीसे सच्चे मुमुक्षु साधु परिग्रहोंका सर्वथा त्याग करते हैं-किसीमें भी अपना ममत्व नहीं रखते। एक भी परिग्रहके न त्यागनेका परिणाम 'एकत्राप्यपरित्यक्ते चित्तशुद्धिर्न विद्यते । चित्तशुद्धि विना साधोः कुतस्त्या कर्म-विच्युतिः ॥३॥ 'एक भी परिग्रहके न त्यागे जानेपर ( पूर्णतः) चित्तशुद्धि नहीं वनती और चित्तशुद्धिके बिना साधुके कर्मोंसे मुक्ति कैसी ?' व्याख्या-भूमि, भवन, धन-धान्यादिके भेदसे बाह्य परिग्रह दस प्रकारका और मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्यादिके भेदसे अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकारका कहा गया है । इन चौबीस प्रकार के परिग्रहोंमें-से यदि एकका भी त्याग नहीं किया जाता तो चित्तशुद्धि पूरी नहीं बनती और जबतक चित्तशुद्धि पूरी नहीं बनती तबतक कर्मोंसे मुक्ति भी पूर्णतः नहीं हो पाती। अतः मुक्तिके इच्छुक साधुको सभी परिग्रहोंका त्याग कर अपने उपयोगको शुद्ध करना चाहिए । इसीसे श्री कुन्दकुन्दाचार्यने परिग्रहके त्यागको निरपेक्ष बतलाया है। यदि वह निरपेक्ष न होकर तिलतुष मात्र थोड़े-से भी परिग्रहकी अपेक्षा रखता है तो उससे साधुके शुद्धोपयोग नहीं बनता, उसी प्रकार जिस प्रकार कि बाह्यमें जबतक तुषका सम्बन्ध रहता है तबतक चावलमें जो ललाईरूप मल है वह दूर होनेमें नहीं आता। जिस साधुके शुद्धोपयोग नहीं बनता उसके कर्मोंसे मुक्ति भी नहीं होती-राग-द्वेषकी प्रवृत्तिमें शुभाशुभ कर्म बँधते ही रहते हैं। १. हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेटमि । बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ॥३-१९॥ -प्रवचनसार । २. मु उपाधिभ्यो। ३. ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिओ॥३-२०॥-प्रवचनसार । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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