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________________ पद्य ८-१२ ] चारित्राधिकार १५९ एकदेश या सर्वदेश छेद-भंगके उत्पन्न होनेपर उसे संवेग-वैराग्य जनक परमागमके उपदेशद्वारा फिरसे उस संयम में स्थापित करते हैं। ऐसे निर्यापक गुरुओंको जयसेनाचार्य ने 'शिक्षागुरु' तथा 'तगुरु' के नामसे भी उल्लेखित किया है । 'छेद' शब्द अनेक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जैसे छिद्र ( सुराख ), खण्डनभेदन ( कर्ण नासिकादिक रूप में ), निवारण ( संशयच्छेद), विनाश ( धर्मच्छेद, कर्मच्छेद) विभाग- खण्ड(परिच्छेद), त्रुटि-दोष, अतिचार, प्रायश्चित्त, प्रायश्चित्तभेद दिवसमासादि के परिमाणसे दीक्षा छेद | यहाँ तथा अगले पद्योंमें वह त्रुटि आदि पिछले अर्थों में ही प्रयुक्त हुआ है। चारित्र में छेदोत्पत्तिपर उसकी प्रतिक्रिया प्रकृष्टं कुर्वतः साधोश्चारित्र कायचेष्टया । यदिच्छेदस्तदा कार्या क्रियालोचन - पूर्विका ॥१०॥ आश्रित्य व्यवहारज्ञं सूरिमालोच्य भक्तितः । दत्तस्तेन विधातव्यश्छेदश्छेदवता सदा ॥ ११ ॥ 'उत्तम चारित्रका अनुष्ठान करते हुए साधुके यदि कायकी चेष्टांसे दोष लगे-अन्तरंग से दोष न बने तो उसे ( उस दोष के निवारणार्थ ) आलोचन -पूर्वक क्रिया करनी चाहिए। यदि अन्तरंग से दोष बनने के कारण योगी छेदको प्राप्त सदोष हुआ हो तो उसे किसी व्यवहारशास्त्रज्ञ में जाकर भक्तिपूर्वक अपने दोषकी आलोचना करनी चाहिए और वह जो प्रायश्चित्त दे उसे ग्रहण करना चाहिए ।' व्याख्या -- प्रयत्नपूर्वक चारित्रका आचरण करते हुए भी यदि मात्र कायकी चेष्टा व्रतमें कुछ दोष लगे और अन्तरंग रागादिके परिणमनरूप अशुद्ध न होने पावे तो उसका निराकरण मात्र आलोचनात्मक क्रियासे हो जाता है । परन्तु अन्तरंगके दूषित होनेपर किसी अच्छे व्यवहार शास्त्र - कुशल गुरुका आश्रय लेकर अपने दोषकी आलोचना करते हुए प्रायश्चित्तकी याचना करना और उसके दिये हुए प्रायश्चित्तको भक्तिभावसे ग्रहण करके उसका पूरी तौर से अनुष्ठान करना होता है । Jain Education International बिहारका पात्र श्रमण "भूत्वा निराकृतश्छेदचारित्राचरणोद्यतः । मुञ्चानो निबन्धानि यतिविहरतां सदा ||१२|| १. " ते शेषाः श्रमण निर्यापिका : शिक्षागुरवश्च भवन्तीति । निर्विकल्पकसमाधिरूपसामायिकस्यैकदेशेन च्युतिरेकदेशश्छेदः सर्वथा च्युतिः सकलदेशश्छेद इति देश - सकलभेदेन द्विधा छेदः । तयोश्छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेग - वैराग्य-परमागमवचनेन संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरव. श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते ||" - प्रवचनसार टीका जयसेनोया । २. पयदम्हि समारद्धे छेद समस्त काय चेदृम्हि । जायदि जदि तस्स पुणो आलोयण-पुत्रिया किरिया ||११|| छेदपउत्तो समणो समणं वत्रहारिणं जिणमदम्हि । आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठ तेण कायव्वं ॥ १२ ॥ ( जुगलं ) - प्रवचनसार अ० ३ | ३. अधिवासे व विवासे छेदविहूणोभवीयसामण्णे | समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णि बंधाणि ॥ १३ ॥ - प्रवचनसार अ० ३ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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