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________________ १५८ योगसार- प्राभृत [ अधिकार ८ और प्रतिष्ठापन ये पाँच समितियोंके नाम हैं । स्पर्शन, रसना, त्राण, चक्षु और क्षेत्र ये पाँच इन्द्रियाँ, जिनका निरोधन-वशीकरण यहाँ विवक्षित है । सामायिक, स्तव, बन्दना, कायोत्सर्ग, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान ये छह परमावश्यक हैं, जिनका स्वरूप इस ग्रन्थके पिछले अधिकार में आ चुका है। ये सब मूलगुण उक्त श्रमण दिगम्बर जैन मुनिके द्वारा अवश्य पालनीय हैं। इन २८ मूलगुणों में महाव्रत मुख्य हैं, शेष सब उनके परिकर हैं- परिवार के रूप में स्थित हैं । और ये सब निर्विकल्प सामायिक संयमके विकल्प होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैं। ऐसा श्री अमृतचन्द्राचार्यने प्रवचनसारकी टीकामें प्रतिपादन किया है ।' मूलगुणों के पालन में प्रमादी मुनि छेदोपस्थापक 'निष्प्रमादतया पाल्या योगिना हितमिच्छता । सप्रमादः पुनस्तेषु छेदोपस्थापको यतिः || ८ || 'जो योगी अपना हित चाहता है उसके द्वारा ये मूलगुण निष्प्रमादताके साथ पालनीय हैं । जो इनके पालनमें प्रमादरूप प्रवर्तता है वह योगी 'छेदोपस्थापक' होता है।' व्याख्या -- उक्त मूलगुणोंके पालने में थोड़ा-सा भी प्रमाद नहीं होना चाहिए, इसीमें योगी-मुनिका हित है, ऐसा यहाँ सूचित किया गया है। साथ ही उस मुनिको 'छेदोपस्थापक' बतलाया है जो उक्त गुणोंके पालनेमें प्रमादसहित प्रवर्तता अथवा लापरवाही (असावधानी) करता है । और इसलिए जो गुण प्रमाद-दोषके कारण भंग हुआ है उसमें फिर से अपने को स्थापित करता है । श्रमणोंके दो भेद सूरि और निर्यापक प्रज्या -दायकः सूरिः संयतानां निगीर्यते । निर्यापकाः पुनः शेषाश्छेदोपस्थापका मताः || 3 'संयमियोंको दीक्षा देनेवाला 'सूरि' - गुरु, आचार्य -- कहा जाता है, शेष श्रमण, जो संयम में दोष लगानेपर अपने उपदेश-द्वारा उस छेद प्राप्त मुनिको संयममें स्थापित करते हैं वे, 'निर्यापक' कहे जाते हैं । Jain Education International व्याख्या - इस पद्य में श्रमणोंके दो मुख्य भेदोंका उल्लेख है - एक 'सूरि' और दूसरा 'निर्यापक' | सूरि, जिसे 'आचार्य' तथा प्रवचनसार- कारके शब्दों में 'गुरु' भी कहते हैं, जिनलिंग ग्रहणके इच्छुक संयतों- मुमुक्षुओंको प्रत्रज्या - दीक्षा देनेवाला होता है। शेष उन सब श्रमणोंको 'निर्यापक' बतलाया है जो दीक्षा ग्रहण के अनन्तर किसी भी श्रमणके व्रत - संयम में १. सर्व सावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणैक महाव्रतव्यक्तवशेन हिंसानृतस्तेयात्रापरिग्रहविरत्यात्मकं पञ्चतयं व्रतं तत्परिकरश्च पञ्चतय इन्द्रियरोधो लोचः षट्तयमावश्यकमचैलक्यमरनानं क्षितिशयन मदन्तधावनं स्थितिभोजन मे भक्तश्चैवम् एते निर्विकल्पसामायिकसंयम विकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव । २. तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्टावगो होदि ॥ ९३० ॥ -- प्रवचनसार चा० अ० । ३. लिंगग्गहणे तेसिं गुरुत्ति पव्वज्जदायगो होदि । छेदेसु अ बगा सेसा गिज्जावगा समणा ॥ १०॥ —प्रवचनसार चा० अ० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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