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________________ पद्य १-७] चारित्राधिकार १५७ जिन-दीक्षा देने के योग्य गुरु और श्रमणत्वको प्राप्ति नाहं भवामि कस्यापि न किंचन ममापरम् । इत्यकिंचनतोपेतं निष्कपायं जितेन्द्रियम् ।।४। नमस्कृत्य गुरुं भक्त्या जिनमुद्रा-विभूषितः । जायते श्रमणोऽसङ्गो विधाय व्रत-संग्रहम् ।।५।। 'मैं किसीका नहीं हूँ और न दूसरा कोई मेरा है, इस अपरिग्रह भावसे युक्त, कषायसे रहित और जितेन्द्रिय गुरुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके तथा व्रतसमूहको धारण करके जो परिग्रहरहित हुआ जिनमुद्रासे विभूषित होता है वह 'श्रमण' है। ___व्याख्या-जिनलिंगको धारण करनेके लिए जिस गुरुके पास जाना चाहिए उसका यहाँ प्रथम पद्यमें प्रमुख रूप दिया है और वह तीन बातोंको लिये हए है-एक तो यह कि 'मैं किसीका नहीं और न दूसरा कोई पर-पदार्थ मेरा है' इस अकिंचन भावको वह लिये हुए होना चाहिए, दूसरे कषायोंसे रहित और तीसरे इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त किये हुए होना चाहिए। ये गुण जिसमें नहीं वह जिनलिंगकी दीक्षा देनेके योग्य नहीं और इसलिए ऐसे गुरुसे जिन-दीक्षा नहीं लेनी चाहिए। दूसरे पद्यमें यथोक्त गुरुको भक्तिपूर्वक नमस्कार करके ( अपने दीक्षा-ग्रहणके भावको निवेदन करके ) और गुरुके द्वारा उपदिष्ट व्रतोंको ग्रहण करके जिनमुद्रासे विभूषित निःसंग हुआ वह मुमुक्ष 'श्रमण' होता है। श्रमण-संज्ञाके अतिरिक्त उसे यति, मुनि आदि नामोंसे भी उल्लेखित किया जाता है; जैसा कि अगले पद्योंमें प्रयुक्त 'यतेः' 'यतिः' आदि पदोंसे जाना जाता है । श्रमणके कु छ मूलगुण महाव्रत-समित्यक्षरोधाः स्युः पञ्च चैकशः । परमावश्यकं षोढा, लोचोऽस्नानमचेलता ॥६॥ अदन्तधावन भूमिशयनं स्थिति-भोजनम् । एकभक्तं च सन्त्येते पाल्या मूलगुणा यतेः ॥७॥ 'पाँच महाव्रत, पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रिय निरोध, छह परमावश्यक, केश लोंच, अस्नान, अचेलता ( नग्नता ), अदन्त-धावन, भूमिशयन, खड़े भोजन और एक बार भोजन ये योगीके ( अट्ठाईस ) मूल गुण हैं जो ( सदा ) पालन किये जानेके योग्य हैं।' व्याख्या-श्रमण-मुनिके लिए जिस व्रतसमूह के ग्रहणकी सूचना पिछले पद्यमें की गयी है वे सुप्रसिद्ध २८ मूलगुण हैं, जिनका इन दोनों पद्योंमें उल्लेख है और जिनके विस्तृत स्वरूप लक्ष्य एवं उपयोगितादिके वर्णनसे मूलाचार, भगवती आराधना, अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थ भरे हुए हैं, विशेष जानकारीके लिए उन्हें देखना चाहिए। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत हैं। ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण १. आ श्रवणो। २. वदसमिदिदियरोधो लोचावरसयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतधावणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥८॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता ॥९॥ (पूर्वार्ध ) -प्रवचनसार अ० चा० । ३. व्या भूम्नि शयनं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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