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चारित्राधिकार
मुमुक्षुको जिनलिङ्ग धारण करना योग्य
विमुच्य विविधारम्भं पारतन्त्र्यकरं गृहम् ।
मुक्तिं यिसासता धार्य जिनलिङ्ग पटीयसा ॥१॥ 'जो मुक्ति प्राप्त करनेका इच्छुक अति निपुण एवं विवेकसम्पन्न मानव है उसे नाना प्रकारके आरम्भोंसे युक्त और पराधीनता-कारक घरको ( गृहस्थको) त्याग कर जिनलिंगको धारण करना चाहिए।'
व्याख्या-सात तत्त्वोंके स्वरूपको भले प्रकार जान लेने और समझ लेनेके अनन्तर जिसके अन्तरात्मामें मोक्ष प्राप्त करनेकी सच्ची एवं तीव्र इच्छा जागृत हो उस विवेकसम्पन्न मुमुक्षुको घर-गृहस्थीका त्याग कर जिनलिंग धारण करना चाहिए-ऐसा मानव ही जिनलिंग धारणके लिए योग्य पात्र होता है, गृह त्यागमें उसकी दृष्टि नाना प्रकार के आरम्भों तथा परतन्त्रताओंके त्यागकी होती है, जो सब मुक्तिकी प्राप्तिमें बाधक हैं।
जिनलिङ्गका स्वरूप सोपयोगमनारम्भं लुश्चित-श्मश्रुमस्तकम् । निरस्त-तनु-संस्कारं सदा संग-विवर्जितम् ॥२॥ निराकृत-परापेक्षं निर्विकारमयाचनम् ।
जातरूपधरं लिङ्ग जैन निवृति कारणम् ॥३।। 'जो सदा ज्ञान-दर्शन रूप उपयोगसे युक्त है, सावद्यकर्मरूप आरम्भसे रहित है, जिसमें दाढी तथा मस्तकके केशोंका लोंच किया जाता है, (तेल मर्दनादि रूपमें ) शरीरका संस्कार नहीं किया जाता, जो बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे मुक्त, परकी अपेक्षासे रहित, याचना-विहीन, विकार-विजित और नवजात-शिशुके समान वस्त्राभूषणसे रहित दिगम्वर रूप को लिये हुए है वह जैन लिंग है, जो कि मुक्तिका कारण है-मोक्षकी प्राप्तिमें सहायक है।'
___ व्याख्या-जिस जिन-लिंगको धारण करनेकी पिछले पद्यमें सच्चे मुमुक्षको प्रेरणा की गयी है उसका स्वरूप इन दो पद्योंमें बतलाया गया है, जो बहुत कुछ स्पष्ट है । यह नौ मुख्य विशेषणोंसे युक्त जैन लिंग मुक्तिकी प्राप्तिमें सहायक है। ऐसा यहाँ निर्दिष्ट किया गया है और इसीसे मुमुक्षुको उसे धारण करना चाहिए।
१. जधजादरूवजादं उप्पाडिदके समं सुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्म हवदि लिंगं ॥५॥ मुच्छारंभविमुक्कं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहि । लिंगं ण परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जेण्हं ॥६।।
-प्रवचनसार अ० ३
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