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पद्य ५२-५४ ]
मोक्षाधिकार
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व्याख्या - यह सातवें अधिकारका उपसंहार-पद्य है, जिसमें मोक्षतत्त्वका सारा सार खींचकर रखा गया है। मोक्षको 'अपुनर्भव' नामके द्वारा, जो कि आत्माके पुनःभव (जन्म) धारण तथा पुनः कर्म- संयोगका निषेधक है, उल्लेखित करते हुए उसे सुखस्वरूप बतलाया है जो कि अतीन्द्रिय है-इन्द्रियोंसे उत्पन्न नहीं -- बिना किसीकी सहायताके अपने आत्मास उत्पन्न सदा स्वाधीन रहनेवाला है, कषायादि मल-दोपसे रहित है, संसार में जिसकी कोई उपना नहीं और जो कभी नाश तथा ह्रासको प्राप्त नहीं होता । यह मोक्ष भवका -- संसारका -
कि दुःखका स्थान है, त्याग करनेपर उन्हें प्राप्त होता है जो कि शुद्ध बुद्ध आशयकेनिर्मल सविवेक परिणामके- धारक होते हैं और उसकी प्राप्तिका उपाय है अपने आत्माको कर्म-कलंकसे रहित शुद्ध खालिस एवं विविक्त रूपमें ध्याना और उस रूप में आदरवान बने रहना । इस उपाय के द्वारा भवका विनाश करके जो शुद्ध-बुद्धाशय मोक्षको प्राप्त करते हैं वे सदा के लिए सिद्धालय में उक्त अनुपम सुखरूप होकर तिष्ठते हैं ।
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इस प्रकार श्री अमितगति - निःसंग योगिराज - विरचित योगसार प्राभृतमें मोक्ष अधिकार नामका सातवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥७॥
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