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१६० योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ८ 'दोषरहित होकर चारित्रके अनुष्ठानमें उद्यमी हुआ योगी निबन्धनोंको-परद्रव्य में रागादि भावोंको-छोड़ता हुआ सदा विहार करे।' ___व्याख्या-यहाँ योगी ( श्रमण ) में विहारकी पात्रताका उल्लेख करते हुए तीन बातोंको आवश्यक बतलाया है--एक तो चारित्रके पालनेमें जो दोष लगा हो उससे प्रायश्चित्तादिके द्वारा वह रहित हो चुका हो, दूसरे आगेके लिए यथार्थ चारित्रके पालनमें पूर्णतः उद्यमी हो
और तीसरे परद्रव्योंमें रागादिकको छोड़ रहा हो। ये तीनों बातें जबतक नहीं बनती तबतक योगीमें सम्यक् विहारकी पात्रता नहीं आती।
किस योगीके श्रमणताको पूर्णता होती है शुद्ध-रत्नत्रयो योगी यत्नं मूलगुणेषु च ।
विधत्ते सर्वदा पूर्ण श्रामण्यं तस्य जायते ॥१३॥ ( सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र-रूप ) शुद्ध रत्नत्रयका धारक जो योगी मूलगुणोंके पालनेमें सदा पूरा यत्न करता है उसके पूर्ण श्रमणता होती है।' ___व्याख्या-यहाँ श्रमणताकी पूर्णता किस योगीके होती है, इसका उल्लेख किया गया है। जिस योगीकी चर्या शुद्ध सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप है और जो २८ मूल गुणोंके पालनमें सदा पूर्ण प्रयत्नवान है उसे पूर्ण श्रमणताकी प्राप्ति होती है। अतः जिस मुनिकी उक्त चर्या में दोष लगते हैं तथा जिससे मूलगुणोंका पूर्णतः पालन नहीं बनता उसे अपनेको तथा दूसरोंको उसे पूर्ण श्रमण न समझना चाहिए ।
निर्ममत्व-प्राप्त योगी किनमें राग नहीं रखता उपधौ वसतौ सङ्घ विहारे भोजने जने ।
प्रतिबन्धं न बध्नाति निर्ममत्वमधिष्ठितः ॥१४॥ 'जो योगी निर्ममत्व हो गया है वह उपधि (परिग्रह ) में, वस्तिका ( आवासस्थान ) में, (चतुर्विध ) संघमें, विहारमें, भोजनमें, जनसमुदायमें प्रतिबन्धको नहीं बाँध सकता है-अनुरागरूप प्रवृत्त नहीं होता है।'
व्याख्या-जिन निबन्धनोंको छोड़नेकी १२वें पद्यमें सूचना की गयी है उनमें से छह के नामोंका यहाँ उल्लेख करते हुए लिखा है कि जिस योगीने निर्ममत्वको अधिकृत किया है वह इनमें से किसीके भी साथ रागका कोई बन्धन नहीं बाँधता। वास्तवमें किसी भी परवस्तुके साथ ममकारका जो भाव है--उसे मेरी-अपनी समझता है-वही रागरूप बन्धकी उत्पत्तिमें कारण है । अतः योगीके लिए पर-पदार्थों में ममत्वका छोड़ना परमावश्यक है, तभी उसकी योगसाधनामें ठीक गति हो सकेगी। ममकार और अहंकार ये दोनों ही परम शत्रु हैं, जिनलिंग धारणके लक्ष्यको बिगाड़नेवाले और संसार-परिभ्रमण करनेवाले हैं।
१. चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसण-महम्मि । पयदो मलगणेस य जो सो पडिपण्णसामण्णो ।।१४।। -प्रवचनसार, अ० ३ । २. आ श्रावण्यं । ३. भत्ते व खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा । उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥१५॥ -प्रवचनसार चा० अ०।
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