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________________ १५२ योगसार-प्राभृत [अधिकार ७ भोगासक्तिमें ध्यान त्यागी विद्वानों के मोहको धिक्कार बडिशाभिषवच्छेदो दारुणो भोग-शर्मणि । संक्तास्त्यजन्ति सद्ध्यानं धिगहो ! मोह-तामसम् ॥४६॥ 'भोग सुख में बंशी संलग्न मांसको तरह दारुण छेद होता है, ( फिर भी) जो भोगोंके सुखमें आसक्त हैं वे प्रशस्त ध्यानका त्याग करते हैं, इस मोह अन्धकारको धिक्कार है, जिससे भोगमें जो दारुण दुःख छिपा है वह दिखाई नहीं पड़ता।' व्याख्या-जिन विद्वानोंको पिछले पद्यमें अल्पबुद्धि-अविवेकी बतलाया है प्रायः उन्हींको लक्ष्य करके इस पद्यमें तथा आगे भी कुछ हितकर बातें कही गयी हैं अथवा सूचनाएँ की गयी हैं । यहाँ भोगसुखकी लालसामें उस दारुण दुःखकी सूचना की गयी है जो मछलीको शिकारीकी बंशीमें लगे हुए मांसके टुकड़ेको खानेकी इच्छासे कण्ठ-छेद-द्वारा प्राप्त होता है । इसी प्रकार इन्द्रिय-भोग सुख में आसक्त हुए जो विद्वान उत्कृष्ट ज्ञान-बीजको पाकर भी सद्ध्यानकी खेती करनेमें उपेक्षा धारण करते हुए उसे त्यागते हैं उनके उस मोहान्धकारको धिक्कार कहा है, जिसके कारण भोगसुखमें छिपा हुआ दारुण दुःख उन्हें दिखलाई नहीं पड़ता। मोही जीवों-विद्वानों आदिकी स्थिति आत्म-तत्वमजानाना विपर्यास-परायणाः । हिताहित-विवेकान्धाः खिद्यन्ते सांप्रतेक्षणाः ॥४७|| 'जो आत्मतत्त्वको नहीं जानते, हित-अहितके विवेकमें अन्धे हैं--अपने हित-अहितको नहीं पहचानते-और विपरीताचरणमें चतुर हैं वे वर्तमान दृष्टि-मौजूदा विषयसुखकी ओर लक्ष्य रखनेवाले--अन्तमें खेदको प्राप्त होते हैं।' व्याख्या--जिनके मोहान्धकारको पिछले पद्यमें धिक्कार कहा है वे वास्तव में बहुत कुछ शास्त्राभ्यास कर लेने और ज्ञानकी बातें दूसरोंको सुनाते रहनेपर भी स्वयं आत्मतत्त्वके विषयमें अनजान (अनभिज्ञ ) होते हैं--अपने हित-अहितके विवेकमें अन्धे बने रहते हैं, इसीसे विपरीत आचरणमें प्रवृत्त होते हैं। ऐसे मौजूदा सुखकी ओर ध्यान रखनेवाले विद्वानों आदिको यहाँ 'सांप्रतेक्षण' ( वर्तमान सुख दृष्टि) कहा गया है और लिखा है कि वे अन्तमें खेद एवं पश्चात्तापको प्राप्त होते हैं । आधि-व्याधि-जरा-जाति-मृत्यु-शोकाद्युपद्रवम् । पश्यन्तोऽपि भवं भीमं नोद्विजन्तेऽत्र मोहिनः ॥४८॥ 'जो मोही जीव हैं वे इस संसारको आधियों-मानसिक पीड़ाओं, व्याधियों-शारीरिक कष्टप्रद-रोगों, जन्म, जरा, मरण और शोकादि उपद्रवोंसे युक्त भयंकर रूपमें देखते हुए भी उससे विरक्त नहीं होते हैं !-यह मोहका कैसा माहात्म्य है !' १. आ वत्यादो। २. आ शक्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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