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पद्य ४६-५१] मोक्षाधिकार
१५३ व्याख्या-जिस मोहको अन्धकार बतलाते हुए पिछले एक पद्यमें धिक्कारा गया है उससे व्याप्त मोही जीवोंकी दयनीय एवं विवेक-विकल स्थितिको इस पद्यमें दर्शाते हुए उसपर खेद व्यक्त किया गया है । वास्तवमें संसारको जिन उपद्रवोंके रूपमें यहाँ चर्चित किया गया है वे सब प्रत्यक्ष हैं और उनसे वह भयंकर बना हुआ है। उसकी इस भयंकरताको देखते हुए भी जो उससे विरक्त नहीं होते हैं उन्हें मोहमें अन्वे अथवा विवेक-शून्य न कहा जाय तो और क्या कहा जाय ?
अकृत्यं दुर्धियः कृत्यं कृत्यं चाकृत्यमञ्जसा ।
अशर्म शर्म मन्यन्ते कच्छू-कण्डूयका इव ॥४६।। 'जो दुर्बुद्धि हैं--मोह संस्कारित अथवा विकारग्रसित बुद्धिको लिये हुए हैं--वे वास्तवमें अकृत्यको कृत्य--न करने योग्य कुकर्मको सुकर्म, कृत्यको अकृत्य-करने योग्य सुकर्मको कुकर्म, और दुःखको सुख मानते हैं; उसी प्रकार जिस प्रकार दाद खुजानेवाले दादके खुजानेको अच्छा और सुखदायो समझते हैं, जबकि वह ऐसा न होकर दुःखदायी है।
व्याख्या--उक्त प्रकारके मोही जीवोंको यहाँ दुर्बुद्धि-दूषित ज्ञानी-बतलाते हुए लिखा है कि वे अकरणीयको नोकरणीय, करणीयको अकरणीय और दुःखको सुख मानते हैं और साथ ही उन्हें दादके खुजानेवालोंकी उपमा दी है जो दादको खुजानेमें सुखका अनुभव करते हुए उसे खूब खुजाकर बढ़ा लेते हैं और फिर दुःखी होते हैं।
ध्यानके लिए तत्त्वश्रुतिकी उपयोगिता क्षाराम्भस्त्यागतः क्षेत्रे मधुरोऽमृत-योगतः ।
प्ररोहति यथा बीजं ध्यानं तत्त्वश्रुतेस्तथा ॥५०॥ "जिस प्रकार खेतमें पड़ा हुआ बीज खारे जलके त्यागसे और मीठे जलके योगसे मधुर उत्पन्न होता है उसी प्रकार तत्त्वश्रुतिके योगसे--तत्त्व वार्ता सुननेके प्रभावसे-उत्तम ध्यान उत्पन्न होता है।'
व्याख्या-यहाँ ध्यानकी उत्पत्ति एवं वृद्धि में तत्त्वोंके श्रवण एवं अतत्त्व श्रवणके परिहारको उसी प्रकारसे उपयोगी बतलाया है जिस प्रकार खेतमें बीजकी उत्पत्ति और वृद्धिके लिए उसे खारे जलसे न सींचकर मीठे जलसे सींचना होता है।
भोगबुद्धि त्याज्य और तत्त्वश्रुति ग्राह्य क्षाराम्भःसदृशी त्याज्या सर्वदा भोग-शेमुषी ।
मधुराम्भोनिमा ग्राह्या यत्नात्तन्वश्रुतिर्बुधैः ॥५१॥ (ध्यानकी सिद्धि के लिए ) बुधजनोंके द्वारा भोगबुद्धि, जो खारे जलके समान है, सदा त्यागने योग्य है और तत्त्वश्रुति, जो कि मधुर जलके समान है, सदा ग्रहण करने योग्य है।' ।
व्याख्या-पिछले पद्यमें बीजके उगने-अंकुरित होने आदिके लिए खारे जलके त्याग और मीठे जलसे सिंचनकी जो बात कही गयी है उसे यहाँ ४५वें पद्यमें उल्लिखित ध्यान-कृषि पर घदित करते हुए भोगबुद्धिको खारे जलके समान त्याज्य और तत्त्वश्रुतिको मीठे जलके
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