SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पद्य ४२-४५] मोक्षाधिकार १५१ विद्वत्ताका परम फल आत्मध्यान रति आत्म-ध्यान-रतिज्ञेयं विद्वत्तायाः परं फलन् । अशेष शास्त्र-शास्तृत्वं संसारोऽभाषि धीधनैः ॥४३॥ 'विद्वत्ताका उत्कृष्ट फल आत्मध्यानमें रति-लीनता-जानना चाहिए। अशेष शास्त्रोंका शास्त्रीपन बुद्धिधनके धारक महान् विद्वानों द्वारा 'संसार' कहा गया है।' व्याख्या-एक विद्वानकी सफलता ही नहीं किन्तु ऊँचे दर्जेकी सफलता इसीमें है कि उसकी आत्मध्यानमें रति हो-रुचिपूर्वक लीनता हो । यदि यह नहीं तो उसका सम्पूर्ण शास्त्रोंका शास्त्रीपना-पठन-पाठन-विवेचनादि कार्य-संसारके सिवा और कुछ नहीं-उसे भी सांसारिक धन्धा अथवा संसार-परिभ्रमणका ही एक अंग समझना चाहिए। साथ ही यह भी समझना चाहिए कि उस विद्वानने शास्त्रोंका महान ज्ञान प्राप्त करके भी अपने जीवन में वास्तविक सफलताकी प्राप्ति नहीं की। मूडचेतों और अध्यात्मरहित पण्डितोंका संसार क्या ? संसारः पुत्र-दारादिः पुंसां संमूढचेतसाम् । । संसारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितात्मनाम् ॥४४।। 'जो मनुष्य अच्छी तरह मूढचित्त हैं उनका संसार 'स्त्री-पुत्रादिक' हैं और जो अध्यात्मसे रहित विद्वान् हैं उनका संसार 'शास्त्र' है। व्याख्या-इस पद्य में पिछले पद्यकी वातको और स्पष्ट करते हुए यह बतलाया है कि किसका कौन संसार है । जो मानव मूढचित्त हैं-शास्त्राभ्यासादिसे रहित अज्ञानी हैंउनका संसार तो स्त्री-पुत्र-धनादिक हैं-वे दिन-रात उसीके चक्कर में फंसे रहते हैं। और जो शास्त्रोंके अच्छे अभ्यासी विद्वान हैं किन्तु अध्यात्मसे रहित हैं-अपने आत्माको जिन्होंने शुद्ध स्वरूप में नहीं पहचाना-उनका संसार शास्त्र है-वे शास्त्रोंका शास्त्रीपन करते-करते ही अपना जीवन समाप्त कर देते हैं और अपना आत्महित कुछ भी करने नहीं पाते । ज्ञानबो जादिको पाकर भो कौन सद्ध्यानको खेती नहीं करते ज्ञान-बीजं परं प्राप्य मनुष्यं कर्मभूमिषु । न सद्ध्यानकृषेरन्तः प्रवर्तन्तेऽल्पमेधसः ।।४।। 'कर्मभूमियोंमें मनुष्यता और उत्कृष्ट ज्ञान-बीजको पाकर जो प्रशस्त ध्यानरूप खेतीके भोतर प्रवृत्त नहीं होते--ध्यानकी खेती नहीं करते-वे अल्पबुद्धि हैं। ___ व्याख्या--इस पद्यमें उन महाशास्त्राभ्यासी विद्वानोंको ‘अल्पबुद्धि' ( अविवेकी ) बतलाया है जो कर्मभूमियोंमें मनुष्य जन्म लेकर और उत्कृष्ट ज्ञान-बीजको पाकर भी श्रेष्ठध्यानकी खेती करने में प्रवृत्त नहीं होते, और इस तरह अपने ध्यानकृषियोग्य मनुष्य-जन्म और उत्कृष्ट ज्ञान-बीजको व्यर्थ गँवाते हैं । ऐसे हीनबुद्धि-अविवेकी जन वे ही होते हैं जो अपनी बुद्धि को पिछले ४२वें पद्यमें वर्णित तीन प्रकारके उपायोंसे संशोधन नहीं करते। १. आ, व्या फलं परं । २. ज्ञातृत्वं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy