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________________ १४४ योगसार- प्राभृत [ अधिकार ७ हूँ और मेरे शरीरके अमुक-अमुक अंगोंपर अमुक प्रकारके बन्धन हैं अपने इस जानने मात्रसे बिना उपाय किये उन बन्धनोंसे छुटकारा नहीं पा सकता; जो ठीक उपाय करता है वह छुटकारा पाता है । उसी प्रकार कर्मोंसे बँधा हुआ यह संसारी जीव अपनेको कर्मोसे बँधा हुआ और कर्मों के प्रकारों - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धके रूपसे बन्धके भेदोंआदिको जानता हुआ भी बिना उपाय किये उन कर्मबन्धनोंसे छुटकारा नहीं पा सकता, यह बात गहरे गर्त में बँधे पड़े अथवा कारागृह में सदाके लिए बन्द किये कैदीके उदाहरणद्वारा प्रथम पद्य में सुझायी गयी और दूसरे पद्य में कर्मबन्धनसे छूटनेके समीचीन उपायको प्रदर्शित किया गया है, जो कि अपने आत्मस्वरूप और कर्मस्वरूपको लक्षणोंसे जानकर कर्म में उपेक्षा धारण रूप विरक्ति और अपने आत्मस्वरूपमें स्थितिके रूपमें है । इस श्रेष्ठ उपायका करनेवाला भव्य मानव अवश्य ही कर्मबन्धनोंसे छूटकर मुक्तिको प्राप्त होता है । इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्यने समयसार की निम्न चार गाथाओंमें प्रदर्शित किया है :इय कम्मबंधणाणं पएस- ठिइ-पयडिमेवमणुभावं । जाणतो वि ण मुच्चइ मुच्चइ सो चेव जदि सुद्धो ॥ २९० ॥ जह बंधे चितो बंधणबद्धो ण पावइ विमोक्खं । तह बंधे चिततो जीवो वि ण पावइ विमोक्खं ॥ २९१ ॥ जह बंधे छित्तूण य बंधणबद्धो उ पावइ विमोक्खं । तह बंधे छित्तूण य जीवो संपावइ विमोक्खं । २९२ ॥ बंधा च सहावं वियाणिओ अप्पणो सहावं च । बंधे जो विरजदि सो कम्म-विमोक्खणं कुणई ॥ २९३ ॥ इस प्रकार मुक्ति के लिए सच्चारित्र शून्य ज्ञानको निरर्थक बतलाया गया है । tad शुद्धाशुद्धकी अपेक्षा दो भेद एको जीवो द्विधा प्रोक्तः शुद्धाशुद्ध-व्यपेक्षया । सुवर्णमिव लोकेन व्यवहारमुपेयुषा ||२५|| संसारीकर्मणा युक्तो मुक्तस्तेन विवर्जितः । अशुद्धस्तत्र संसारी मुक्तः शुद्धोऽपुनर्भवः ||२६|| 'एक जीव शुद्ध - अशुद्धको अपेक्षासे दो प्रकारका कहा गया है, जिस प्रकार व्यवहारीजनके द्वारा सुवर्ण शुद्ध और अशुद्ध दो प्रकारका कहा जाता है। जो कर्मसे युक्त है वह 'संसारी' और जो कसे रहित है वह 'मुक्त' जीव है। दोनोंमें संसारी अशुद्ध और मुक्त जीव शुद्ध माना है, जो पुनः भवधारण नहीं करता।' व्याख्या - वस्तुतः देखा जाय तो अपने गुण-स्वभावकी दृष्टिसे सुवर्णधातु एक है, परन्तु लोकव्यवहार में उसके शुद्ध सुवर्ण और अशुद्ध सुवर्ण ऐसे दो भेद किये जाते हैं। जो सुवर्ण कट्ट- कालिमादि मलसे युक्त है अथवा चाँदी, ताँबा, लोहा आदि अन्य धातुओंके सम्बन्धको प्राप्त उनसे मिश्रित है उसे 'अशुद्ध सुवर्ण' कहते हैं और जो सुवर्ण सारे मल तथा परसम्बन्धसे रहित होता है उसे 'शुद्ध ( खालिस ) सुवर्ण' कहा जाता है। इसी प्रकार जीवद्रव्य वस्तुतः अपने गुण-स्वभावकी दृष्टिसे एक है; परन्तु शुद्ध-अशुद्धकी अपेक्षासे उसके दो भेद किये गये हैं - एक 'संसारी' दूसरा 'मुक्त' ।' इनमें संसारी जीव कर्ममलसे युक्त होनेके कारण १. मु शुद्धः पुनर्मतः । २ संसारिणी मुक्ताश्च - त० सूत्र० २ - १० । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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