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पद्य २५-२२] मोक्षाधिकार
१४५ 'अशुद्ध' और मुक्त जीव कर्ममलसे रहित हो जानेके कारण 'शुद्ध' माना गया है, जिसे 'अपुनर्भव' भी कहते हैं।
शुद्ध जीवके अपुनर्भव कहनेका हेतु भवं वदन्ति संयोगं यतोऽत्रात्म-तदन्ययोः ।
वियोगं तु भवाभावमापुनर्भविकं ततः ॥२७॥ 'कि आत्मा और तद्धिन्न ( पुद्गलकर्म) के संयोगको 'भव' और वियोगको 'भवाभाव' कहते हैं, जो फिरसे उत्पन्न न होनेका नाम है अतः फिरसे उत्पन्न होनेके कारण शुद्ध-मुक्त जीवको 'अपुनर्भव' कहा जाता है।
व्याख्या-पिछले पद्यमें मुक्त जीवका जो 'अपुनर्भव' नाम दिया है उसीका इस पद्यमें निरुक्ति-पूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है ।--लिखा है कि जीव और जीवसे भिन्न जो पुद्गलकर्म हैं उनके संयोगका नाम 'भव' है और दोनोंके वियोगका नाम 'भवाभाव' (अभव) है, जिसका फिर कभी संयोग न हो; फिरसे कर्मका संयोग न हो सकनेके कारण मुक्त जीवको 'अपुनर्भव' कहा गया है।
मुक्ति आत्मा किस रूपसे रहता है
निरस्तापर-संयोगः स्व-स्वभाव-व्यवस्थितः। सर्वोत्सुक्यविनिर्मुक्त: स्तिमितोदधि-संनिभः ॥२८॥ एकान्त-क्षीण-संक्लशो निष्ठितार्थो निरञ्जनः ।
निराबाधः सदानन्दो मुक्तावात्मावतिष्ठते ।।२६।। 'मुक्ति अवस्थामें आत्मा परसंयोगसे रहित, स्वस्वभावमें अवस्थित, निस्तरंग समुद्रके समान, सर्वप्रकारको उत्सुकतासे मुक्त, सर्वथा क्लेशजित, कृतकृत्य, निष्कलंक, निराबाध और सदा आनन्दरूप तिष्ठता है-यही परब्रह्मका रूप है।'
व्याख्या-मुक्तिको प्राप्त हुआ जीव किस रूपमें रहता है इसका इन दोनों पद्योंमें बड़ा ही सुन्दर एवं अच्छा व्यापक स्पष्टीकरण किया गया है और वह यह है कि मुक्तात्मा समस्त परसम्बन्धोंसे रहित हुआ अपने ज्ञान-दर्शन स्वभाव में पूर्णतः अवस्थित होता है, निस्तरंग समुद्रके समान समस्त रागादि विकल्पोंसे शून्य रहता है, किसी भी प्रकारका दुःख-क्लेश कभी उसके पास नहीं फटकता, उसका कोई भी प्रयोजन सिद्ध होनेके लिए शेष नहीं रहता, द्रव्य-भावादिरूपसे सर्व प्रकारके मलों एवं विकारोंसे वह रहित होता है, वह किसीको कोई बाधा नहीं पहुँचाता और न उसे कोई किसी प्रकारकी बाधा पहुँचा सकता है, वह अपने स्वरूपमें मग्न हुआ सदा आनन्दमय बना रहता है; क्योंकि उससे अधिक सुन्दर एवं स्पृहणीय दूसरा कोई भी रूप विश्वमें कहीं नहीं है--सारा विश्व उसके ज्ञानमें प्रतिविम्बित है।
प्रथम पद्यमें 'निरस्तापरसंयोगः' विशेषण बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है और इस बातको सूचित करता है कि जबतक पर-सम्बन्ध बना रहता है तबतक किसीकी भी अपने स्वभावमें
१. मु भवाभावमपुन विकं ।
२. निस्तरंगोदधिवत् ।
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