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________________ पद्य १९-२४] मोक्षाधिकार १४३ व्याख्या--सांख्यमतमें आत्माको ज्ञानशून्य चैतन्य मात्र बतलाया है और ज्ञानको प्रकृतिका धर्म निर्दिष्ट किया है, यहाँ उसका प्रतिषेध करते हुए माननीय बुद्धिके धारकोंसेविवेकशील विद्वानोंसे यह अनुरोध किया है कि उन्हें ऐसा नहीं मानना चाहिए; क्योंकि अचेतनके-प्रकृतिजन्यके-कभी भी ज्ञानका होना देखने में नहीं आता। अतः ज्ञानको प्रकृतिजन्य मानना प्रत्यक्ष के विरुद्ध है । ज्ञानादि गुणोंके अभावमें जीवको व्यवस्थिति नहीं बनती दुरितानीव न ज्ञानं निर्वृतस्यापि गच्छति । काश्चनस्य मले नष्टे काश्चनत्वं न नश्यति ॥२१॥ न ज्ञानादि-गुणाभावे जीवस्यास्ति व्यवस्थितिः । लक्षणापगमे लक्ष्यं न कुत्राप्यवतिष्ठते ।।२२।। 'मुक्तात्माके कर्मोकी तरह ज्ञान नष्ट नहीं होता। ( ठीक है ) सुवर्णका मल नष्ट होनेपर सुवर्ण नष्ट नहीं होता। ज्ञानादि गुणोंका अभाव होनेपर जीवको अवस्थिति नहीं बनती। (ठीक है) लक्षणका अभाव होनेपर लक्ष्य कहीं भी नहीं ठहरता है। व्याख्या-यदि कोई वैशेषिकमतका पक्ष लेकर यह कहे कि मुक्तात्माके जिस प्रकार कम नष्ट होते हैं उसी प्रकार ज्ञान भी नष्ट हो जाता है तो यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि सुवर्णका मल नष्ट होनेपर जिस प्रकार सुवर्णत्व नष्ट नहीं होता उसी प्रकार मुक्तात्मा ज्ञानीके ज्ञान-मल नष्ट होनेपर ज्ञान नष्ट नहीं होता। वास्तवमें ज्ञानादि गुणोंका अभाव होनेपर तो जीवकी कोई व्यवस्थिति ही नहीं बनती; क्योंकि ज्ञान-दर्शन गुण जीवके लक्षण हैं; जैसा कि जीवाधिकारमें बतलाया जा चुका है। लक्षणका अभाव होनेपर लक्ष्यका फिर कोई अस्तित्व नहीं बनता। ऐसी स्थितिमें वैशेषिकोंने बुद्धयादि वैशेषिक गुणोंके उच्छेदको मोक्ष माना है, वह तर्क-संगत मालूम नहीं होता-उनके यहाँ तब जीवका अस्तित्व भी नहीं बनता । गुणोंका अभाव हो जाय और गुणी बना रहे यह कैसे हो सकता है ।-नहीं हो सकता। बिना उपायके बन्धको जानने मात्रसे कोई मुक्त नहीं होता विविधं बहुधा बन्धं बुध्यमानो न मुच्यते । कर्म-बद्धो विनोपायं गुप्ति -बद्ध इव ध्रुवम् ॥२३॥ विभेदं लक्षणैर्बुद्ध्वा स द्विधा जीव-कर्मणोः । मुस्तकर्मात्मतत्त्वस्थो मुच्यते सदुपायवान् ॥२४॥ 'कर्मोसे बँधा हुआ जीव नाना प्रकारके कर्मबन्धनोंको बहुधा ( प्रायः ) जानता हुआ भी निश्चयसे बिना उपाय किये मुक्त नहीं होता, जैसे कि कारागृहमें पड़ा हुआ बन्दी । जो जीव और उनके लक्षणोंसे दो प्रकारके भिन्न पदार्थ) जानकर कर्मको छोडता-कर्मसे उपेक्षा धारण करता-और आत्मतत्त्वमें लीन होता है वह सद् उपायवान् है और कर्मो से छूटता है।' व्याख्या-जिस प्रकार बाँध जूड़कर डाला हुआ कोई मनुष्य यह जानते हुए भी कि मुझे अमुकने बाँध जूड़ कर डाला है, अमुक प्रकारकी रस्सी आदिके बन्धनों में मैं बँधा हुआ १. कारागार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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