SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ७ व्याख्या-१५वें पद्यके अनुसार निर्वृति (निर्वाण ) को प्राप्त हुआ केवली क्या फिरसे संसारमें आता है-संसारी बनता है ? यह एक प्रश्न है जिसका उत्तर इस पद्यमें दिया गया है और वह है नकारात्मक अर्थात् नहीं आता। और उसका कारण यह बतलाया है कि निर्वाणको प्राप्त हुआ जीव सुखीभूत होता है-अपने स्वाधीन शुद्ध सुखको प्राप्त कर लेता है तब वह अपने उस सुखको छोड़कर दुःखके ग्रहणमें कैसे प्रवृत्त हो सकता है ? नहीं हो सकता; क्योंकि कोई भी स्वाधीन जीव स्वेच्छासे सुखदायी पदको छोड़कर दुःखदायी पद ग्रहण नहीं करता, यह प्रत्यक्ष देखने में आता है । निर्वाण जिसे निर्वृति, निःश्रेयस तथा मोक्ष भी कहते हैं वह जन्म, जरा, रोग, मरण, शोक, दुःख और भय आदिसे परिमुक्त, शाश्वत शुद्धः सुखके रूपमें होता है। जैसा कि स्वामी समन्तभद्रके समीचीन-धर्मशास्त्रगत निम्न वाक्यसे प्रकट है : जन्म-जरामय-मरणैः शोकैर्दुःखैर्भयैश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥१३१॥ ऐसे शुद्ध और सदाके लिए प्राप्त स्वाधीन सुख पदको छोड़कर कोई भी विवेकी जीव बिना किसी परतन्त्रताके सांसारिक दुःख पदको ग्रहण करनेमें प्रवृत्त नहीं हो सकता। यदि किसीके विषयमें यह कहा जाता है कि उसने अमुकका उद्धार करने अथवा संसारके अमुक वर्गीय जीवोंका दु.ख मिटानेके लिए अवतार धारण किया है तो समझ लेना चाहिए कि वह मुक्तिको प्राप्त अथवा पूर्णतः सुखी जीव नहीं है-मोहसे अभिभूत संसारका ही एक प्राणी है, चाहे कितने ही सांसारिक ऊँचे पदको प्राप्त क्यों न हो। कर्मका अभाव हो जानेसे पुनः शरीरका ग्रहण नहीं बनता शरीरं न स गृह्णाति भूयः कर्म-व्यपायतः । कारणस्यात्यये कार्य न कुत्रापि प्ररोहति ॥१६।। 'वह मुक्तामा कर्मका विनाश हो जानेसे पुनः शरीर ग्रहण नहीं करता । ( ठीक है ) कारणका नाश हो जानेपर कहीं भी कार्य उत्पन्न नहीं होता।' व्याख्या-मुक्त हुआ जीव फिरसे शरीरको ग्रहण नहीं करता; क्योंकि संसारावस्थामें शरीरके ग्रहणका कारण 'नाम' कर्म था वह जब सर्वथा नष्ट हो गया तब कारण के अभाव में कार्यका उत्पाद कैसे हो सकता है ? अतः जिनके मनमें मुक्तिसे पुनरागमनकी अथवा मुक्तात्माके शरीर धारण कर सांसारिक कार्यों को करने-करानेकी बात कही गयी वह दो कारणोंसे युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती एक कारणका पिछले पद्यमें निर्देश है और दूसरेका इस पद्यमें निर्देश किया गया है। ज्ञानको प्रकृतिका धर्म मानना असंगत न ज्ञानं प्राकृतो धर्मो मन्तव्यो मान्य-बुद्धिभिः । अचेतनस्य न ज्ञानं कदाचन विलोक्यते ॥२०॥ 'जो मान्य बुद्धि हैं उनके द्वारा ज्ञान प्रकृतिका धर्म नहीं माना जाना चाहिए; (क्योंकि ) अचेतन पदार्थके ज्ञान कभी देखा नहीं जाता।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy