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________________ पद्य १३-१८] मोक्षाधिकार १४१ शुक्लध्यानके नामसे उल्लेखित किया है। शुक्लध्यानके चार भेद आगममें वर्णित हैं, यहाँ 'व्युपरतक्रियानिवृत्ति' नामका अन्तिम (चौथा) शुक्लध्यान ही विवक्षित जान पड़ता है, जिसके अनन्तर मुक्तिकी प्राप्ति होती है । इसीसे उक्त शुक्लध्यान-द्वारा अघातिया कर्मों का विच्छेद करके मुक्तिको प्राप्त करना लिखा है। उक्त कर्मों के विच्छेदसे पूर्व उनकी स्थितिको योग-निरोध-द्वारा आयुकर्मकी स्थितिके तुल्य कर लिया जाता है, तभी शुक्लध्यानके एक ही झट केमें उन सबका युगपत् छेद बनता है। शुक्लध्यानसे कर्म नहीं छिदता, ऐसा वचन अनुचित कमैव भिद्यते नास्य शुक्ल-ध्यान-नियोगतः । नासौ विधीयते कस्य नेदं वचनमश्चितम् ॥१६॥ कर्म-व्यपगमे (मो) राग-द्वेषाद्यनुपपत्तितः । आत्मनः संग (ना सह) रागाद्याः न नित्यत्वेन संगताः ॥१७॥ 'यदि यह कहा जाय कि इस केवलोके शुक्लव्यानके नियोगसे कर्म सर्वथा भेदको प्राप्त नहीं होता और न किसीके मोक्ष बनता है तो यह वचन ठीक नहीं है: क्योंकि राग-द्र उत्पत्ति न होने में कर्मों का विनाश होता है-नये कर्म बँधते नहीं तथा पूर्व बँधे कर्मोकी निर्जरा हो जाती है और आत्माके साथ रागादिका कोई शाश्वत सम्बन्ध नहीं है-वे उपजते तथा विनशते देखे जाते हैं। ऐसी स्थितिमें शुक्लध्यान-द्वारा राग-द्वेषका अभाव होनेसे कर्मोंका अभाव और कर्मों के अभावसे मोक्षका होना सुघटित है। इसमें शंका तथा आपत्तिके लिए कोई स्थान नहीं।' व्याख्या-यहाँ शंकाकारने अपनी शंकाके समर्थनमें कोई हेतु नहीं दिया; प्रत्युत इसके समाधान रूप प्रतिवाद में एक अच्छे हेतुका प्रयोग किया गया है और वह है राग-द्वेषादिकी । अनुपपत्ति । राग-द्वेषादिक रूप परिणाम कर्मोंकी उत्पत्ति स्थिति आदिके कारण हैं और किसी भी राग-द्वेषादिका आत्माके साथ कोई शाश्वत सम्बन्ध नहीं है-वे अपने-अपने निमित्तको पाकर उत्पन्न होते तथा विनाशको प्राप्त होते रहते हैं। केवलीमें मोहनीय कर्मका अभाव हो जानेसे राग-द्वेषादिकी उत्पत्ति स्थिति आदिका कोई कारण नहीं रहता, राग-द्वेषादिकी उत्पत्ति स्थिति आदिका पूर्णतः अभाव हो जानेसे कर्मका विनाश होना स्वाभाविक है और कर्मोके सर्वथा विनाश हो जानेपर मोक्षका होना अवश्यम्भावी है, उसे फिर कोई रोक नहीं सकता। सुखीभूत निवृत जीव फिर संसारमें नहीं आता न निर्वृतः सुखीभृतः पुनरायाति संसृतिम् । सुखदं हि पदं हित्वा दुःखदं कः प्रपद्यते ॥१८॥ (इसके सिवाय ) सुखीभूत मुक्तात्मा पुनः संसारी नहीं बनता। ( ठीक है ) सुखदायी पदको छोड़कर कौन ( स्वेच्छासे ) दुःखद पदको प्राप्त होता है ?-कोई भी नहीं होता।' १. आ, व्या विद्यते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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