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________________ १४० योगसार-प्राभृत [ अधिकार ७ की बात, सूर्यकी शक्ति सीमित जरूर है परन्तु केवलीकी शक्ति वीर्यान्तरायकर्मका अभाव हो जानेसे सीमित नहीं होती--असीमित तथा अनन्त होती है । ज्ञानस्वभावके कारण आत्मा सर्वज्ञ-सर्वदर्शी सामान्य वद् विशेषाणां स्वभावो ज्ञेयभावतः । ज्ञायते स च वा साक्षाद् विना विज्ञायते कथम् ॥१३॥ सर्वज्ञः सर्वदर्शी च ततो ज्ञानस्वभावतः । नास्य ज्ञान-स्वभावत्वमन्यथा घटते स्फुटम् ॥१४॥ 'सामान्यको तरह विशेषोंका स्वभाव ज्ञेय भावसे जाना जाता है और वह स्वभाव प्रत्यक्ष ज्ञानके बिना कैसे स्पष्ट जाना जाता है ? नहीं जाना जाता है। अतः ज्ञानस्वभावके कारण (आत्मा) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है अन्यथा-यदि सर्वज्ञ और सर्वदर्शी नहीं तो-स्पष्टत: ज्ञानस्वभावपना भी इस आत्माके घटित नहीं होता।' ___ व्याख्या सर्व पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होते हैं। ऐसा कोई भी पदार्थ संसार में नहीं जो केवल सामान्य रूप हो या केवल विशेष रूप ही हो । सामान्यके साथ विशेषका और विशेषके साथ सामान्यका अविनाभाव-सम्बन्ध है। ऐसी स्थितिमें सामान्यको जो द्रव्यरूपमें होता है, जिस प्रकार ज्ञेय भावसे जाना जाता है उसी प्रकार उसके विशेषों-पर्यायोंके स्वभावको भी नेय भावसे जाना जाता है। स्वभावका यह परिज्ञान चँकि बिना उस पदार्थको साक्षात् किये--प्रत्यक्ष अनुभवमें लाये-नहीं बन सकता अतः ज्ञानस्वभावके कारण यह आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है, अन्यथा-सर्वज्ञ और सर्वदर्शी न होनेकी हालतमें--इस आत्माके ज्ञान-स्वभाव भी नहीं बनता। यहाँ ज्ञानस्वभावहेतुसे आत्माका सर्वज्ञत्व और सर्वदर्शित्व सिद्ध किया गया है । जब आत्मा ज्ञानरूप है (आत्मा ज्ञानं ) और सर्वपदार्थ ज्ञेयरूप है तब कोई भी पदार्थ चाहे वह कितनी ही दूरी पर क्यों न स्थित हो और कालके कितने ही अन्तरको लिये हुए क्यों न हो, उस केवलज्ञानका विषय होनेसे नहीं बच सकता जो कि सर्वथा ज्ञानावरणादि रूप प्रतिबन्धकसे रहित, निर्वाध और असीम (अनन्त ) है। केवली शेष किन कर्मोंको कैसे नष्ट कर निवृत होता है वेद्यायुर्नाम-गोत्राणि योगपद्येन केवली । शुक्लध्यान-कुठारेण छित्त्वा गच्छति निवृतिम् ॥१५॥ 'केवलज्ञानी वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ( इन चार अघातिया) कर्मो को शुक्लध्यानरूपी कुठारसे एक साथ छेदकर मुक्तिको प्राप्त होता है।' व्याख्या--कर्मोकी आठ मूल प्रकृतियोंमें-से जिन चार प्रकृतियोंका यहाँ उल्लेख है वे अघातिया कर्म प्रकृतियाँ कहलाती हैं, जबतक उनका छेद नहीं होता तबतक मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती। केवलज्ञानी उनका किसी क्रमसे छेद नहीं करता किन्तु एक साथ सबका छेद कर डालता है । जिस शक्तिशाली कुठारसे यह छेद कर्म किया जाता है उसको यहाँ १. मु तथा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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