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________________ पद्य ९-१२ ] मोक्षाधिकार १३९ व्याख्या -- जो ज्ञानमय है अथवा ज्ञान जिसका रूप - स्वभाव - है उसको 'ज्ञानी' कहते हैं । ज्ञान और ज्ञानीमें सर्वथा भेद नहीं होता, यह बात छठे अधिकारके ३५वें पद्यमें बतलायी जा चुकी है और पिछले पद्य में यह बतलाया गया है कि प्रतिबन्धकके बलसे ज्ञान अपने कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । वहाँ उस केवलज्ञानीका उल्लेख है जिसके ज्ञानके समस्त प्रतिबन्धक कारण नष्ट हो चुके हैं और इसलिए वह किसी भी ज्ञेयके - ज्ञानके विषयभूत पदार्थ - के - जानने में अज्ञानी नहीं होता, यह प्रतिपादन किया गया है। साथ ही एक सुन्दर उदाहरणके द्वारा उसे स्पष्ट किया गया है। वह उदाहरण है दाह्य और दाहकका, 'दाहक' अग्निको और 'दाह्य' त्वरित जलने योग्य सूखे ईंधनको कहते हैं अभि और उस ईंधन के सम्बन्ध में यदि कोई बाधक न हो तो अग्नि उस ईंधनको न जलावे यह कभी नहीं होता। इसी तरह केवलज्ञानीके ज्ञान विषयक जब कोई प्रतिबन्धक-बाधक कारण - नहीं रहा तब वह किसी ज्ञेयको न जाने यह कभी नहीं हो सकता । । ज्ञानीके देशादिका विप्रकर्ष कोई प्रतिबन्ध नहीं प्रतिबन्धो न देशादि - विप्रकर्षोऽस्य युज्यते । तथानुभव- सिद्धत्वात् सप्तहेतेरिव स्फुटम् ||१२|| 'इस केवलज्ञानीके देशादिका विप्रकर्ष - दूरस्थितिरूप प्रतिबन्ध -- युक्त नहीं है; क्योंकि ऐसा अनुभवसे सिद्ध होता है, सूर्यके समान ।' व्याख्या - पिछले पद्य में प्रतिबन्धके न होनेकी जो बात कही गयी है उसे न मानकर यदि कोई कहे कि देशादिककी दूरी केवलज्ञानका प्रतिबन्ध है तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि केवलज्ञानीके यह प्रतिबन्ध नहीं बनता, ऐसा अनुभव से सिद्ध होता है, जो लाखों मील की दूरीपर स्थित होनेपर भी पृथ्वीके पदार्थोंको प्रकाशित करता है । पृथ्वी और सूर्य के मध्यकी दूरी में जितने भी पुद्गल परमाणु स्थित हैं वे सभी सूर्य के प्रकाशसे प्रकाशित होते हैं तब दूरीका विषय प्रकाशकत्व में बाधक नहीं कहा जा सकता । केवलज्ञानीके ज्ञान और उस दूरवर्ती पदार्थ के मध्य में भी जितने पुद्गल परमाणु तथा आकाशादि द्रव्योंके प्रदेशस्थित हैं उन सबको भी केवलज्ञान जब जानता है तब उस दूरवर्ती पदार्थकी दूरी उसके जानने में बाधक कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती । - निकट और दूरवर्ती सभी ज्ञेय ज्ञानका विषय होने से उनके जाननेमें केवलज्ञानीके बाधाके लिए कोई स्थान नहीं रहता । इसी तरह कालका कोई अन्तर तथा वस्तुके स्वभावकी सूक्ष्मता भी किसी वस्तुके जाननेमें केवलीके लिए बाधक नहीं होती । सभी ज्ञेय होनेसे उसके ज्ञानके विषय हैं और वह उन्हें साक्षात् रूप में जानता है । इसीसे स्वामी समन्तभद्रने सूक्ष्म, अन्तरित, और दूरवर्ती सभी पदार्थों को केवलज्ञानी सर्वज्ञके ज्ञानका विषय बतलाया है । यदि यह कहा जाय कि एक सूर्य एक समय में सारे विश्वको प्रकाशित करता हुआ नहीं देखा जाता, एक जगह दिन है तो दूसरी जगह रात्रि है, इससे उसकी शक्ति सीमित जान पड़ती है अतः सूर्यका दृष्टान्त ठीक घटित नहीं होता, तो यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि दृष्टान्त विषयको समझने के लिए प्रायः एकदेशी होता है--सर्वदेशी नहीं । रही शक्ति १. अग्नेरिव । २. सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ देवागम | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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