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________________ १३८ योगसार-प्राभृत [अधिकार ७ ज्ञान किस प्रकार आत्माका स्वभाव है विभावसोरिवोष्णत्वं चरिष्णोरिव' चापलम् । शशाङ्कस्येव शीतत्वं स्वरूपं ज्ञानमात्मनः ॥६॥ 'ज्ञान आत्माका उसी प्रकारसे स्वभाव है जिस प्रकार कि सूर्यका उष्णपना, वायुका चंचलपना और चन्द्रमाका शीतलपना स्वरूप है।' व्याख्या-जिस केवलज्ञानके उदयका दूसरे पद्यमें उल्लेख है वह आत्मामें किसी नयी वस्तुका उत्पाद नहीं है किन्तु आत्माका उसी प्रकारसे स्वभाव है जिस प्रकार कि सूर्यका उष्णत्व, चन्द्रमाका शीतलत्व और वायुका चंचलत्व स्वभाव है। स्वभावका कभी अभाव नहीं होता--भले ही प्रतिबन्धक कारणोंके वश उसका तिरोभाव, आच्छादन या गोपन हो जाय। आत्माका चैतन्यरूप क्यों स्वकार्यमें प्रवृत्त नहीं होता चैतन्यमात्मनो रूपं तच्च ज्ञानमयं विदुः । प्रतिबन्धक-सामर्थ्यान स्वकार्ये प्रवर्तते ॥१०॥ 'आत्माका रूप चैतन्य है और वह ज्ञानमय कहा गया है, प्रतिबन्धकको सामर्थ्यसे वह अपने कार्यमें प्रवृत्त नहीं होता।' व्याख्या-चैतन्य भी आत्माका स्वरूप कहा जाता है, उसके विषयको यहाँ स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि वह ज्ञानमय है-ज्ञानसे भिन्न चैतन्य दूसरी कोई वस्तु नहीं है । साथ ही यह भी बतलाया है कि जो ज्ञान या चैतन्य आत्माका पिछले पद्यानुसार स्वभाव है वह प्रतिबन्धक कारणों के बलसे अपने कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। केवलज्ञानके प्रतिबन्धक कारण वे चार घातिया कर्म हैं जिनका दूसरे पद्यमें उल्लेख है और इसीसे उनके पूर्णतः विनाशपर केवलज्ञानके उदयकी बात कही गयी है। सांख्यमतमें आत्माका स्वरूप चैतन्यमात्र बतलाया गया है और उस चैतन्यको ज्ञान शून्य लिखा है । यहाँ 'तच्च ज्ञानमयं' वाक्यके द्वारा उसका प्रतिवाद किया गया है। प्रतिबन्धकके बिना ज्ञानो ज्ञेय-विषयमें अज्ञ नहीं रहता ज्ञानी ज्ञेये भवत्यज्ञो नासति प्रतिवन्धके । प्रतिबन्धं विना वह्निन दाह्येऽदाहकः कदा ॥११॥ 'ज्ञेयके होने और उसका कोई प्रतिबन्धक न होनेपर ज्ञानी उस विषयमें अनभिज्ञ नहीं होता-उसे जानकर ही रहता है । ( ठीक है ) अग्नि दाहके योग्य (सूखे ) ईधनके होते हुए प्रतिबन्धकके अभावमें कभी अदाहक नहीं होती-वह उसको जलाकर ही रहती है।' १. आ चरणोरिव; आ चरण्योरिव । २. ज्ञानशून्यं चैतन्यमात्रमात्मा इति सांख्यमतम्"-इष्टोपदेशटोकायामाशाधरः। ३. ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने। दाह्येऽग्निहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ।-अष्टसहस्रीमें उद्धृत पुरातन वाक्य । ४. मु ज्ञेयो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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