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________________ पद्य ३-८] मोक्षाधिकार ___'बहुत भारी संक्लेशका कारण जो कर्म ग्रन्थिरूप दुर्भेद पर्वत है उसके ध्यानरूपी तीक्ष्ण वज्रसे छिन्न-भिन्न होनेपर इस योगी महात्माके अतीव तात्त्विक (असली) आनन्द उत्पन्न होता है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि रोगसे पीड़ित रोगीके औषधसे रोगके दूर हो जानेपर यथेष्ट आनन्द प्राप्त होता है।' व्याख्या-जिस पर्वतके भेदनकी बात पिछले पद्यमें कही गयी है वह कर्मोकी गाँठोवाला बड़ा ही दुर्भेद और अतीव दुःखदायी पर्वत है। उसे शुद्धात्माके ध्यान रूप तीक्ष्ण वनके द्वारा ही भेदन किया जाता है-अन्यके द्वारा उसका आत्मासे पूर्णतः भेदन-विघटन नहीं बनता। उस दुर्भेद एवं महादुःखदायी कर्म पर्वतका उक्त ध्यानवसे भेदन-विश्लेषण हो जानेपर ध्याता महात्माको अत्यन्त वास्तविक आनन्दकी प्राप्ति होती है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि व्याधिसे पीडित रोगीको औषध-द्वारा व्याधिके मूलतः नष्ट हो जानेपर होती है। किस केवलीको कब धर्म-देशना होती है साक्षादतीन्द्रियानर्थान् दृष्ट्वा केवलचक्षुषा । प्रकृष्ट-पुण्य-सामर्थ्यात् प्रातिहार्यसमन्वितः ॥७॥ अवन्ध्य-देशनः श्रीमान् यथाभव्य-नियोगतः । महात्मा केवली कश्चिद् देशनायां प्रवर्तते ॥८॥ 'केवलज्ञान-दर्शनरूप चक्षुसे अतीन्द्रिय पदार्थोंको साक्षात्, देख-जानकर, प्रकृष्ट पुण्यके सामर्थ्यसे ( अष्ट ) प्रातिहार्यसे युक्त श्रीसम्पन्न अमोघ-देशना-शक्तिको प्राप्त कोई केवली महात्मा, जैसा भव्य जीवोंका नियोग होता है उसके अनुसार, देशनामें-धर्मोपदेशके देनेमें-प्रवृत्त होता है।' व्याख्या-जो पदार्थ इन्द्रिय-गोचर नहीं थे उन अतीन्द्रिय पदार्थोंका भी केवलज्ञानीको केवल नेत्रके द्वारा साक्षात् दर्शन होता है यह बात यहाँ पहले पद्यमें बतलायी गयी है, उसके पश्चात् महात्मा केवलीकी धर्मोपदेशके देने में प्रवृत्तिकी दूसरी बात कही गयी है । इस दूसरी बातके प्ररूपणमें केवलीका 'कश्चित्' विशेषण अपना खास महत्त्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि सभी केवलज्ञानी धर्मोपदेशके देने में प्रवृत्त नहीं होते-उसमें से कोई महात्मा ही धर्मोपदेशके देनेमें प्रवृत्त होते हैं और वे वही होते हैं जो सातिशय पुण्योदयके प्रभावसे उन प्रातिहार्योको प्राप्त करते हैं, जिनकी संख्या आगममें आठ कही गयी है और वे हैं--१ अशोकवृक्ष, २ सुरपुष्पवृष्टि, ३ दिव्यध्वनि, ४ चँवर, ५ छत्र, ६ सिंहासन, ७ भामंडल ८ दुन्दुभि । साथ ही अमोघ देशना शक्तिसे युक्त होते हैं जिनकी धर्म-देशना कभी निष्फल नहीं जाती; परन्तु वे उस फलकी एषणा (इच्छा) से कभी आतुर नहीं होते। और उनकी उस धर्मदेशनाका निमित्त कारण होता है भव्य जीवोंके भाग्यका उदयादिक, जिसे 'यथाभव्य-नियोगतः' पदके द्वारा सूचित किया गया है। अन्तरंग कारण तीर्थंकर प्रकृतिके उदयको समझना चाहिए; जैसा कि आप्तपरीक्षाके "विना तीर्थकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशता (१६)" इस वाक्यसे जाना जाता है। मोहनीय कर्मका सर्वथा अभाव हो जानेसे केवलज्ञानीमें इच्छा तथा रागका अस्तित्व नहीं बनता अतः बिना इच्छा तथा रागके ही अन्तरंग और बहिरंग दोनों कारणोंके मिलनेपर उनकी धर्मदेशनामें स्वतः प्रवृत्ति होती है। १. आ केवलि वक्षुषा । २. अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिदिव्यध्वनिश्चामरमासनं च । भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ ३. नाऽपि शासन-फलैषणा तुरः। -समन्तभद्र । १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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