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________________ पद्य ३९-४४] निर्जराधिकार १३१ व्याख्या-- यहाँ कड़छी-चम्मचके उदाहरण-द्वारा पूर्व पद्यमें वर्णित विषयको स्पष्ट किया गया है। कड़छी-चम्मचका उपयोग जिस प्रकार भोजनके ग्रहण करनेमें किया जाता है उसी प्रकार आत्माके जानने में ज्ञेयके लक्ष्यका उपयोग किया जाता है । आत्माका ग्रहण (जानना) हो जानेपर शेयका लक्ष्य छोड़ दिया जाता है, और अपने ग्रहीत स्वरूपका ध्यान किया जाता है। आत्मोपलब्धिपर ज्ञानियोंकी सुख-स्थिति उपलब्ध यथाहारे दोषहीने सुखासिकः । आत्मतत्त्वे तथा क्षिप्रमित्यहो ज्ञानिनां रतिः ॥४२॥ 'दोषरहित आहारके उपलब्ध होनेपर जिस प्रकार सुख मिलता है, उसी प्रकार आत्मतत्त्वके उपलब्ध होनेपर शीघ्र सुख मिलता है, यह ज्ञानियोंकी आत्मतत्त्वमें कैसी रति है !' व्याख्या-निर्दोष भोजनके मिलनेपर जिस प्रकार प्राणियोंकी शीघ्र ही सुखसे स्थिति होती है उसी प्रकार शुद्ध आत्मतत्त्वरूप भोजनके मिल जानेपर ज्ञानियोंकी सुखपूर्वक स्थिति होती है, यह ज्ञानियोंकी आत्मतत्त्वमें रुचिका वैचित्र्य है-वे उसीमें लीन रहकर सुखका अनुभव करते हैं। आत्मतत्त्वरतोंके द्वारा परद्रव्यका त्याग परद्रव्यं यथा सद्भिर्ज्ञात्वा दुःख-विभीरुभिः । दुःखदं त्यज्यते दूरमात्मतास्वरतैस्तथा ॥४३॥ ___ "जिस प्रकार दुःखसे भयभीत सत्पुरुषोंके द्वारा पर-द्रव्य दूरसे ही छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार आत्म-तत्त्वमें लीन व्यक्तियोंके द्वारा परद्रव्य दूरसे ही छोड़ दिया जाता है।' ___ व्याख्या-दुःखसे भयभीत हुए सज्जन जिस प्रकार पर-द्रव्यको दुःखदायी समझकर उसे दूरसे ही त्याग देते हैं-ग्रहण नहीं करते--उसी प्रकार जो आत्मतत्त्वमें रत हैं वे परद्रव्यको ग्रहण नहीं करते-उसमें आसक्त नहीं होते। विशोधित ज्ञान तथा अज्ञानकी स्थिति ज्ञाने विशोधिते ज्ञानमज्ञानेज्ञानमूर्जितम् । शुद्धं स्वर्णमिव स्वर्णे लोहे लोहमिवाश्नुते ॥४४॥ 'ज्ञानके विशोधित होनेपर ज्ञान और अज्ञानके विशोधित होनेपर अज्ञान अजित--अतिशयको प्राप्त होता है, जैसे स्वर्णके विशोधित होनेपर शुद्ध स्वर्ण और लोहेके विशोधित होनेपर शुद्ध लोहा गुणवृद्धिको प्राप्त होता है।' व्याख्या-ज्ञानमें जो कुछ अज्ञान मिला हो उसको दूर करना 'ज्ञानका विशोधन' और अज्ञानमें जो कुछ ज्ञान मिला हो उसका दूर करना 'अज्ञानका विशोधन' कहलाता है। यह विशोधित हुआ ज्ञान विशोधित शुद्ध स्वर्णके समान सातिशय शुद्ध ज्ञान होता है और यह विशोधित हुआ अज्ञान विशोधित शुद्ध लोहेके समान विशुद्ध ( खालिस ) अज्ञान होता है। १. आ सुखासिकका। २. लभते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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