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________________ १३२ योगसार-प्राभृत निर्मल चेतनमें मोहक दिखाई देनेका हेतु प्रतिविम्बं यथादर्शे दृश्यते परसंगतः । चेतने निर्मले मोहस्तथा' कल्मषसंगतः ||४५ || 'जिस प्रकार निर्मल दर्पण में परके संयोगसे प्रतिबिम्ब दिखाई देता है उसी प्रकार निर्मल चेतन में कर्मके सम्बन्धसे मोह दिखाई देता है ।' व्याख्या - निर्मल दर्पण में जो प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है उसका कारण उस परद्रव्यका सम्बन्ध है जो लेपादिके रूपमें पृष्ठभागपर लगा रहता है । निर्मल आत्मामें भी जो मोह दिखाई पड़ता है उसका कारण कषायादिरूप द्रव्यकर्मका सम्बन्ध है । यदि द्रव्यकर्मका सम्बन्ध न हो तो भाव मोहका दर्शन नहीं हो सकता । शुद्धि के लिए ज्ञानाराधन में बुद्धिको लगाने की प्रेरणा धर्मेण वासितो जीव धर्मे पापे न वर्तते । पापेन वासितो नूनं पापे धर्मे न सर्वदा ||४६ || Jain Education International [ अधिकार ६ ज्ञानेन वासितो ज्ञाने नाज्ञानेऽसौ कदाचन । यतस्ततो मतिः कार्या ज्ञाने शुद्धिं विधित्सुभिः || ४७|| 'धर्मसे वासित - संस्कारित हुआ जीव निश्चयसे धर्ममें प्रवर्तता है, अधर्म में नहीं । पापसे वासित - संस्कारित हुआ जीव सदा पापमें प्रवृत्त होता है, धर्ममें नहीं । चूँकि ज्ञान से संस्कारित हुआ जीव ज्ञानमें प्रवृत्त होता है अज्ञानमें कदाचित् नहीं, इसलिए शुद्धिकी इच्छा रखनेवालोंके द्वारा ज्ञानमें-ज्ञानकी उपासना-आराधनायें - बुद्धि लगायी जानी चाहिए ।' व्याख्या -- यहाँ 'धर्म' शब्द के द्वारा पुण्य-प्रसाधक कर्मका उल्लेख करते हुए, पुण्य-पाप तथा ज्ञानकी वासना - भावना अथवा संस्कृतिको प्राप्त व्यक्तियोंकी अलग-अलग प्रवृत्तिका उल्लेख किया गया है । जो लोग पुण्य धर्मकी भावनासे भावित अथवा संस्कारित होते हैं वे पुण्यकर्म में प्रवृत्त होते हैं - पापकर्म में नहीं । जो पापकी वासनासे वासित अथवा संस्कारित होते हैं वे सदा पापकर्म में प्रवृत्ति करते हैं- पुण्य कर्म में नहीं । और जो ज्ञानभावनासे भावित अथवा संस्कारित होते हैं वे सदा ज्ञानाराधनमें प्रवृत्त होते हैं-अज्ञानकी साधनामें कभी नहीं । प्रथम दो प्रवृत्तियों तथा निवृत्तियोंका फल शुभ-अशुभ कर्मका बन्ध है, जिससे आत्माकी शुद्धि नहीं बनती अतः आत्माकी शुद्धि चाहनेवालोंके लिए यहाँ ज्ञानाराधनमें अपनी बुद्धिको लगानेकी प्रेरणा की गयी है। ज्ञानाराधनमें बुद्धिको लगाना एक बड़ा तपश्चरण है, जिससे निरन्तर कर्मोंकी निर्जरा होती है । निर्मलताको प्राप्त ज्ञानी अज्ञानको नहीं अपनाता ज्ञानी निर्मलतां प्राप्तो नाज्ञानं प्रतिपद्यते । मलिनत्वं कुतो याति काञ्चनं हि विशोधितम् ॥४८॥ १. आ मोहिस्तथा । २. आ सिद्धि । ३. आ जाति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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