SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 176
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ६ व्याख्या - पिछले पद्यके विषयको यहाँ दीपक और उसके प्रकाशदर्शनके उदाहरणद्वारा स्पष्ट किया गया है। जिस प्रकार दीपकके प्रकाशको देखनेवाला दीपकको भी देखता है उसी प्रकार जो ज्ञेय रूप पदार्थको जानता है वह उसके ज्ञायक अथवा ज्ञानीको भी जानता है, न जानने की बात कैसी ? १३० वैद्यको जानना वेदकको न जानना आश्चर्यकारी विदन्ति दुर्धियो वेद्यं वेदकं न विदन्ति किम् । द्योत्यं पश्यन्ति न द्योतमाश्चर्यं बत कीदृशम् ॥३६॥ 'दुर्बुद्धि वैद्यको तो जानते हैं वेदकको क्यों नहीं जानते ? प्रकाश्यको तो देखते हैं किन्तु प्रकाशकको नहीं देखते, यह कैसा आश्चर्य है ?' व्याख्या - निःसन्देह ज्ञेयको जानना और ज्ञायकको - ज्ञान या ज्ञानीको - न जानना एक आश्चर्य की बात है, उसी प्रकार जिस प्रकार कि प्रकाशसे प्रकाशित वस्तुको तो देखना किन्तु प्रकाशको न देखना | ऐसे ज्ञायक - विषयमें अज्ञानियोंको यहाँ दुर्बुद्धि-विकार प्रसित बुद्धि वाले - बतलाया है । पिछले पद्य में दीपक और उसके उद्योतकी बातको लेकर विषयको स्पष्ट किया गया है, यहाँ उद्योत और उसके द्वारा द्योतित ( द्योतनीय ) पदार्थ - की बातको लेकर उसी विषयको स्पष्ट किया गया है । द्योतक, द्योत और द्योत्यका जैसा सम्बन्ध है वैसा ही सम्बन्ध ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेयका है। एकके जानने-से दूसरा जाना जाता है। जिसे एकको जानकर दूसरेका बोध नहीं होता वही सचमुच दुर्बुद्धि है । ज्ञेयके लक्ष्यसे आत्मा के शुद्धरूपको जानकर ध्यानेका फल ज्ञेय - लक्ष्येण विज्ञाय स्वरूपं परमात्मनः । व्यावृच्य लक्ष्यतः शुद्ध ध्यायतो हा निरंहसाम् ||४०॥ 'ज्ञेयके लक्ष्य द्वारा आत्माके परमस्वरूपको जानकर और लक्ष्यरूपसे व्यावृत होकर शुद्ध स्वरूपका ध्यान करनेवालेके कर्मोंका नाश होता है ।' व्याख्या - जो लोग ज्ञेयको जाननेमें प्रवृत्त होते हुए भी ज्ञायकको जाननेमें अपनेको असमर्थ बतलाते हैं उन्हें यहाँ ज्ञेयके लक्ष्यसे आत्मा के उत्कृष्ट स्वरूपको जाननेकी बात कही गयी है और साथ ही यह सुझाया गया है कि इस तरह शुद्ध स्वरूपके सामने आनेपर लक्ष्यको छोड़कर अपने उस शुद्ध स्वरूपका ध्यान करो, इससे कर्मोंकी निर्जरा होती है । पूर्व कथनका उदाहरण द्वारा स्पष्टीकरण के Jain Education International 'चटुकेन यथा भोज्यं गृहीत्वा स विमुच्यते । गोचरेण तथात्मानं विज्ञाय स विमुच्यते ॥ ४१ ॥ 'जिस प्रकार कड़छी- चम्मचसे भोजन ग्रहण करके उसे छोड़ दिया जाता है उसी प्रकार गोचरके - ज्ञेय लक्ष्य - द्वारा आत्माको जानकर वह छोड़ दिया जाता है ।' १. आ ज्ञायलक्षेण । २. दीपस्तो यथा कश्चित्किंचिदालोक्य तं त्यजेत् । ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्चात्तं ज्ञानमुत्सृजेत् ॥ - यशस्तिलक | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy