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पद्य ७-११]
निर्जराधिकार विशुद्धभावका धारी कर्मक्षयका अधिकारी शुभाशुभ-विशुद्धषु भावेषु प्रथम-दयम् ।
यो विहायान्तिमं धत्ते क्षीयते तस्य कल्मषम् ॥६॥ 'जो शुभ, अशुभ, विशुद्ध इन तीन भावोंमें-से, प्रथम दोको छोड़कर अन्तिम विशुद्ध भावको धारण करता है उसके कल्मष-कषायादि कर्ममल-क्षयको प्राप्त होता है।'
व्याख्या--यहाँ यह सूचित किया है कि जीवके परिणाम तीन प्रकारके होते हैं-शुभ, अशुभ, विशुद्ध । इनमें से पहले दो परिणामोंको, जो कि कर्म-बन्धके कारण हैं, छोड़कर जो तीसरे विशुद्ध परिणामको धारण करता है वह नवीन कर्मोंका आस्रव-बन्ध न करता हुआ पूर्व संचित कर्मोंके क्षय करने में समर्थ होता है। विशुद्ध परिणाममें दो शक्तियाँ हैं-एक कर्मोंके आस्रव-बन्ध रोकनेकी और दूसरी पूर्व बाँधे कर्मोको क्षयरूप-निर्जरित करनेकी ।
शुद्धात्मतत्त्वको न जाननेवालेका तप कार्यकारी नहीं बाह्यमाभ्यन्तरं द्वधा प्रत्येकं कुर्वता तपः ।
नैनो निर्जीयते शुद्धमात्मतत्त्वमजानता ॥१०॥ 'जो शुद्ध आत्मतत्त्वको नहीं जानता उसके द्वारा बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकारके तपमें से प्रत्येक प्रकारके तपका अनुष्ठान करते हुए भी कर्म निर्जराको प्राप्त नहीं होता।'
व्याख्या-मोक्षशास्त्र में 'तपसा निर्जरा च' इस सूत्रके द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि तपसे निर्जरा तथा संवर दोनों होते हैं। यहाँ एक खास मौलिक बात और कही गयी है और वह यह कि जबतक योगी-तपस्वी शुद्ध आत्मतत्त्वको नहीं जानता-पहचानता तबतक उसके बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकारके तपोंमें-से किसी भी प्रकारका तप करते हुए कर्मोंकी निर्जरा नहीं होती। संवरके अधिकार में जिस प्रकार संवराधिकारीके लिए आत्मतत्त्वको जानने और उसमें स्थित होनेकी बात कही गयी है उसी प्रकार निर्जराधिकारीके लिए भी उसे समझना चाहिए । जो आत्माको हो नहीं समझता उसका बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकारका तप, जिसमें ध्यान भी शामिल है, एक प्रकारसे निरर्थक होता है-उससे न संवर बनता है और न निर्जरा। तपश्चरण के साथ आत्माको जानना बिन्दुओंके साथ अंकके समान उसे सार्थक करता है। अतः केवल तपश्चरणके मोहमें ही उलझे रहना नहीं चाहिए, आत्माको जानने तथा पहचाननेका सबसे प्रथम प्रयत्न करना चाहिए।
किस संयमसे किसके द्वारा कर्मकी निर्जरा होती है कर्म निर्जीर्यते पूतं विदधानेन संयमम् ।
आत्म-तत्त्व-निविष्टेन जिनागम-निवेदितम् ॥११॥ 'आत्मतत्त्वमें स्थित जो योगी जिनागम-कथित पवित्र संयमका अनुष्ठान करता है उसके द्वारा कर्म निर्जराको प्राप्त होता है।'
१. मु बाह्यमभ्यंतरं।
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