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________________ ११८ योगसार-प्राभृत [ अधिकार ६ खाली करनेके लिए जिस प्रकार नये जलके प्रवेश-द्वारको रोकनेकी पहले ज़रूरत है उसी तरह संचित कर्मोंकी निर्जराके लिए नये कर्मोंका आत्म-प्रवेश रोकनेकी-संवरकी-पहले जरूरत है। किसका कौन ध्यान कर्मोका क्षय करता है रत्नत्रयमयं ध्यानमात्म-रूप-प्ररूपकम् । अनन्यगत-चित्तस्य विधत्त कम-संक्षयम् ।।७।। 'जो योगी अन्यत्र चित्तवृत्तिको लिये हुए नहीं है उसके आत्मरूपका प्ररूपक रत्नत्रयमयो ध्यान कर्मों का विनाश करता है।' व्याख्या-जिस ध्यानका पिछले पद्योंमें उल्लेख आया है उसे यहाँ 'रत्नत्रयमय' लिखा है, जो कि आत्मतत्त्वका प्ररूपक है, उसमें जो योगी अनन्यगत चित्त होकर किसी दूसरे पदार्थमें अपनी चित्तवृत्तिको न रखकर-प्रवृत्त होता है वह कर्मोकी भले प्रकार निर्जरा करता है। कौन योगी सारे कर्ममलको धो डालता है त्यक्तान्तरेतर-ग्रन्थो निर्व्यापारो जितेन्द्रियः । लोकाचार-पराचीनो मलं क्षालयतेऽखिलम् ॥८॥ 'जो योगी अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके परिग्रहका त्याग कर इन्द्रिय-व्यापारसे रहित हुआ जितेन्द्रिय है और लोकाचारसे पराङ्मुख है वह सारे कर्ममलको धो डालता है।' व्याख्या-निर्जराधिकारीका वर्णन करते हुए यहाँ यह प्ररूपण किया है कि जो योगी आभ्यन्तर तथा बाह्य दोनों प्रकारके परिग्रहोंसे रहित है, इन्द्रिय-व्यापारमें प्रवृत्त नहीं होता, इन्द्रियोंको अपने वशमें किये हुए है और लोकाचारकी परवाह नहीं करता वह सब प्रकारके कर्ममलको धोनेमें समर्थ होता है । यहाँ आदि-अन्तके दो विशेषण अपना खास महत्त्व रखते हैं, प्रथम विशेषणमें अन्तरंग परिग्रहका त्याग प्रधान है, जो मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ और हास्यादि नोकषायोंके रूपमें चौदह प्रकारका होता है और बाह्य परिग्रह क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन-धान्यादिके रूपमें दस प्रकारका कहा गया है। इन दोनों प्रकारके परिग्रहोंका जबतक सच्चे हृदयसे त्याग नहीं बनता तबतक इन्द्रिय-व्यापारका रुकना और जितेन्द्रिय होना भी नहीं बनता। रहा अन्तिम विशेषण, वह इस बातका सूचक है कि जबतक लोकाचारके कर्ममलका क्षालन नहीं हो सकेगा-लोकाचारके पालनमें प्रवृत्ति रूप कर्मका आस्रव होता ही रहेगा। इसीसे सच्चे मुनियोंकी वृत्तिको 'अलौकिकी' कहा गया है। यह अलौकिकी वृत्ति भवाभिनन्दी अथवा लौकिक मुनियोंसे नहीं बनती। उन्हें तो लोकैषणा सताती रहती है और इसलिए वे लोकाचारसे विमुख नहीं हो पाते। १. पराङ्मुखः । २. अनुसरता पदमेतत् करम्बिताचार-नित्यनिरभिमुखा। एकान्तविरतिरूपा भवति मुनीनामलौकिकी वृत्तिः॥ -अमृतचन्द्र सूरि; पु० सिद्ध्यु० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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