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________________ पद्य १-६] निर्जराधिकार ११७ व्याख्या-अत्यन्त प्रज्वलित तीक्ष्ण अग्निका नाम 'दावानल' है, जो वनके वन भस्म कर देती है, सूखेकी तरह कोई गीला-हरा वृक्ष भी वनमें उसकी लपेट में आकर भस्म होनेसे बच नहीं पाता। एकाग्रचिन्तनरूप ध्यान भी ऐसी ही प्रबल अग्नि है, उसकी लपेट में आया हुआ कोई भी कर्म चाहे वह उदयके योग्य हो या न हो जलकर राख अथवा शक्ति क्षीण हो जाता है। इस तरह यहाँ पिछले पंद्यमें उल्लिखित 'अपाकजा' निर्जराकी शक्तिको दावानलके उदाहरण-द्वारा स्पष्ट किया गया है। परमनिरा-कारक ध्यान-प्रक्रमका अधिकारी दुरीकृत-कषायस्य विशुद्धध्यान-लक्षणः । विधत्ते प्रक्रमः साधोः कर्मणां निर्जरां पराम् ॥४॥ 'जिसने कषायको दूर किया है उस साधुके विशुद्ध ध्यान-लक्षणरूप जो प्रक्रम-प्रज्वलन होता है वह कर्मोकी उत्कृष्ट निर्जरा है।' ___व्याख्या-जिस साधुने अपनी आत्मासे क्रोधादि कषायोंको दूर कर दिया है उसीके विशुद्ध ध्यान बनता है-कषायाकुलित साधुके नहीं और वह विशुद्ध ध्यान ऐसा प्रक्रम अथवा प्रज्वलन होता है जो कर्मोको भस्मादिरूप परिणत करके बहुत बड़े पैमानेपर उनकी निर्जरा कर देता है। कोन योगी कर्म समूहकी निर्जराका कर्ता आत्मतत्त्वरतो योगी कृत-कल्मष-संवरः। यो ध्याने वर्तते नित्यं कम निर्जीयतेऽमुना ॥५॥ 'आत्मतत्त्वमें लोन हुआ और कल्मषका-कषायादि कर्म-मलका-संवर किये हुए जो योगी सदा ध्यानमें वर्तता है उसके द्वारा कर्मसमूह निर्जराको प्राप्त होता है।' ___व्याख्या-निर्जराके अधिकारीका वर्णन करते हुए यहाँ उस योगीको कर्मसमूहकी उत्कृष्ट निर्जराका कर्ता लिखा है जो आत्म-तत्त्वमें लीन हुआ कषायादि कर्म-मलोंके संवरपूर्वक सदा ध्यानमें प्रवृत्त होता है। संवरके बिना निर्जरा वास्तविक नहीं संवरेण विना साधो स्ति पातक-निर्जरा। नृतनाम्भःप्रवेशे(शो)ऽस्ति सरसो रिक्तता कुतः ॥६॥ 'संवरके बिना साधुके पातकों-कर्मोकी पूर्णतः अविपाक निर्जरा नहीं बनती। (ठीक है) जब नये जलका प्रवेश हो रहा है तब सरोवरको रिक्तता कैसे बन सकती है ? नहीं बन सकती।' व्याख्या--पिछले पद्यमें संवर-पूर्वक ध्यानमें प्रवृत्त होनेकी जो बात कही गयी है उसके लक्ष्यको इस पद्यमें स्पष्ट करते हुए बतलाया है कि संवरके बिना वास्तवमें साधुके पापों-कर्मोकी निर्जरा नहीं बनती, उसी प्रकार जिस प्रकार कि सरोवरमें नये जलका प्रवेश होते रहनेपर उसकी रिक्तता नहीं बनती-वह कभी खाली नहीं हो पाता। अतः सरोवरको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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