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१२० योगसार-प्राभृत
[ अधिकार ६ व्याख्या-यहाँ संयमके द्वारा कर्मकी निर्जराका वर्णन करते हुए उसके दो विशेषण दिये गये हैं एक तो 'पूत' जो पवित्र एवं शुद्ध अर्थका वाचक है, दूसरा है "जिनागमनिवेदितं' जिसका आशय है जिनागमके द्वारा प्रतिपादित । जिनागममें संयमके दो भेद किये गये हैंएक इन्द्रिय संयम और दूसरा प्राणिसंयम । स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी अशुभ प्रवृत्तियोंको रोकना 'इन्द्रिय संयम' है और प्राणधारी जीवोंके प्रति घातिरूपसे प्रबृत्त न होनेका नाम 'प्राणिसंयम' है। ये दोनों ही प्रकारके संयम निर्जराके हेतु हैं । संयमके अधिकारीका यहाँ एक ही विशेषण दिया और वह है आत्मतत्त्वमें स्थित । जो आत्मतत्त्वमें स्थित नहीं वह संयमका पात्र नहीं और इसलिए उसके द्वारा संयम जनित निर्जरा नहीं बनती।
कौन योगी कर्मरजको स्वयं धुन डालता है
अन्याचार-परावृत्तः स्वतत्त्व-चरणादृतः ।
संपूर्ण-संयमो योगी विधुनोति रजः स्वयम् ॥१२॥ 'जो योगी अन्य आचारसे विमुख हुआ स्वरूपाचरणमें तत्पर है और पूर्णतः संयमका पालक है वह स्वयं कर्मरजको छिन्न-भिन्न कर डालता है।'
व्याख्या-यहाँ पूर्णतः संयमी योगीकी बातको लिया गया है और वह वही होता है जो स्वरूपाचरणसे भिन्न अन्याचरणमें रुचि नहीं रखता और स्वरूपाचरणमें सदा तत्पर रहता है । ऐसा योगी विना किसीकी सहायता अथवा अपेक्षाके स्वयं कर्ममलको विशेषतः धुन डालता है।
लोकाचारको अपनानेवाले योगीका संयम क्षीण होता है हित्वा लोकोत्तराचारं लोकाचारमुपैति यः ।
संयमो हीयते तस्य निर्जरायां निबन्धनम् ॥१३॥ 'जो योगी लोकोत्तराचारको छोड़कर लोकाचारको अपनाता है उसका संयम, जो कि निर्जराका कारण है, क्षीण हो जाता है।'
व्याख्या-पिछले पद्य में जिस स्वरूपाचरणका उल्लेख है वही यहाँ 'लोकोत्तराचार के रूपमें विवक्षित है उसे छोड़कर जो योगो लोकाचारमें-लौकिकजनों-जैसी प्रवृतिमें--प्रवृत्त होता है उसका संयम हीन-क्षीण हो जाता है, और इसलिए कर्मकी निर्जरा करने में समर्थ नहीं होता।
अर्हद्वचनकी श्रद्धा न करनेवाला सुचरित्री भी शुद्धिको नहीं पाता
चारित्रं विदधानोऽपि पवित्रं यदि तत्त्वतः ।
श्रद्धत्ते नाहतं वाक्यं न शुद्धिं श्रयते तदा ॥१४॥ 'पवित्र चारित्रको पालते हुए भी यदि ( योगी ) वस्तुतः अर्हन्तके वाक्यका श्रद्धान नहीं करता---उसे अपनी चर्याका आधार नहीं बनाता तो वह शुद्धिको प्राप्त नहीं होता।'
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