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पद्य ४२-४७]
संवराधिकार शुद्ध ज्ञाता परके त्याग-ग्रहणमें प्रवृत्त नहीं होता ज्ञानवांश्चेतनः शुद्धो न गृह्णाति न मुञ्चति ।
गृह णाति मुञ्चते' कम मिथ्याज्ञान-मलीमसः ॥४५॥ 'जो आत्मा शुद्ध ज्ञानवान् है वह न कुछ ग्रहण करता है और न छोड़ता है, जो मिथ्याज्ञानसे मलिन है वह कर्मको ग्रहण करता है तथा छोड़ता है।'
व्याख्या-जो आत्मा शुद्ध ज्ञानसे युक्त है वह वस्तुतः किसी भी पर पदार्थका ग्रहणत्याग नहीं करता, जो ग्रहण-त्याग करता है वह मिथ्याज्ञानसे युक्त मलिन आत्मा होता है। ग्रहण-त्याग राग-द्वेपके द्वारा हुआ करता है, शुद्ध ज्ञानमें राग-द्वेष नहीं होता, इसलिए उसके द्वारा ग्रहण-त्याग नहीं बनता, मिथ्याज्ञान राग-द्वेपसे युक्त होता है, इसीसे उसके द्वारा ग्रहणत्याग बनता है।
सामायिकादि पट् कर्मोमें सभक्ति प्रवृत्तके संवर सामायिके स्तवे भक्त्या वन्दनायां प्रतिक्रमे ।
प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वर्तमानस्य संवरः ॥४६।। 'जो योगी भक्तिपूर्वक सामायिकमें, स्तवमें, वन्दनामें, प्रतिक्रमणमें, प्रत्याख्यानमें और कायोत्सर्गमें वर्तता है उसके संवर-कर्मानवका निरोध होता है।' व्याख्या-यहाँ सामायिकादि षट् आवश्यक क्रियाओंके, जो कि योगी मुनियोंके सदा
ग्य हैं, नाम देकर लिखा है कि इन क्रियाओं में जो भक्तिके साथ सादर प्रवृत्त होता है उसके संवर बनता है कौका आस्रव रुक जाता है। ये क्रियाएँ सम्यक्चारित्ररूप हैं। इनमें से प्रत्येकका स्वरूप, जो संवरका कारण है, क्रमशः आगे दिया गया है।
सामायिकका स्वरूप यत् सर्व-द्रव्य-संदर्भ राग-द्वेप-व्यपोहनम् ।
आत्मतत्त्व-निविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ।।४७।। 'जो आत्मतत्त्वमें स्थित है उस (योगी) के सर्व द्रव्योंके सन्दर्भ-समूहमें राग-द्वेषका जो व्यपोहन-विशेष रूपसे परित्याग-है उसे 'सामायिक' कहते हैं।'
व्याख्या-सामायिकके इस लक्षणमें दो बातें खास तौरसे ध्यानमें लेने योग्य हैं-एक तो यह कि प्रस्तुत सामायिकका अधिकारी कौन है और दूसरी यह कि उस अधिकारीके सामायिकका स्वरूप क्या है । अधिकारी यहाँ 'आत्मतत्त्व-निविष्टस्य' पदके द्वारा आत्मतत्त्वमें स्थित (योगी) को बतलाया है-अतः जो आत्माको ठीक जानता-पहचानता नहीं और न उसमें जिसकी प्रवृत्ति तथा स्थिति होती है वह सामायिकका अधिकारी नहीं-भले ही वह मुनि हो, दिगम्बर हो तथा बाह्यमें मुनिचर्याका कितना ही पालन क्यों न करता हो । उस अधि. कृतसामायिकका स्वरूप है सर्वद्रव्योंके सन्दर्भमें राग-द्वेषका विशेष रूपसे(सामान्य रूपसे नहीं) परित्याग । 'सर्वद्रव्य सन्दर्भ' पदमें सम्पूर्ण चेतन-अचेतन पदार्थों की सभी अवस्थाओंका
१. आ मुच्यते । Jain Education International
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