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________________ ११० योगसार-प्राभृत [अधिकार ५ समावेश होता है-चाहे वे शाब्दिक हों, आर्थिक हों अथवा ज्ञानविषयक हों। और 'रागद्वेष व्यपोहन'में सारा वैषम्य दूर होकर पूर्णतः समताभावका प्रादुर्भाव होता है-चाहे वह कितने थोड़े कालके लिए क्यों न हो। इस तरह यह संक्षेपमें सामायिक अथवा सन्तुलित समता-भावरूप आवश्यकका स्वरूप है। इसीको सामायिक पाठ आदिमें व्रतरूपसे निम्न प्रकार प्ररूपित किया है: समता सर्वभूतेषु संयमः शुभ-भावना। ___ आर्त-रौद्र-परित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥ अर्थात् सर्वभूतों-प्राणियोंमें समताभाव-राग-द्वेषका अभाव (क्योंकि राग-द्वेष ही आत्माके भावोंकी समता-तुलाको सम न रखकर विषम बनाते हैं ), इन्द्रियों तथा प्राणके दो भेदरूप दोनों प्रकारका संयम, शुभ भावना और आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानके परित्यागको 'सामायिक व्रत' कहते हैं। आवश्यक तथा व्रतरूपसे इन दोनों सामायिकोंके स्वरूपमें जो अन्तर है उससे एकका विषय अल्प ( सर्वभूतों तक सीमित ) तो दूसरेका विषय महान् (सर्वद्रव्योंकी सब अवस्थाओं तक व्याप्त) जान पड़ता है । इसीसे सामायिक व्रतरूपमें गृहस्थोंके लिए और आवश्यक रूपमें मुनियोंके लिए विहित है । व्रतरूपसे सामायिकमें शुभ भावना आदिके होनेसे पुण्यका आस्रव भी बनता है जबकि आवश्यक रूपसे सामायिकमें पुण्य-पाप किसीभी प्रकारका आस्रव न होकर संवर ही होता है । संवरके कारणीभूत सामायिकमें मन्त्रादिक जपना अथवा किसीके नामकी माला फेरना नहीं बनता। स्तवका स्वरूप रत्नत्रयमयं शुद्ध चेतनं चेतनात्मकम् । विविक्तं स्तुवतो नित्यं स्तवजैः स्तूयते स्तवः ॥४८॥ 'जो योगी चेतन गुण विशिष्ट, रत्नत्रय-मय और कर्मके कलंकसे रहित शुद्ध चेतनको नित्य स्तुति करता है उस स्तवको स्तव-मर्मज्ञोंने 'स्तव' कहा है।' व्याख्या-यहाँ स्तवके लक्षण में केवल शुद्ध चेतनको ही स्तुत्यरूपमें ग्रहण किया गया है; जो केवल नामसे चेतन नहीं किन्तु चेतना गुण विशिष्ट है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय-मय है, सारे कर्म-कलंकसे विमुक्त रूप 'विविक्त' है और यही संक्षेपमें जिसका स्तवन है। इस स्तवनमें सचेतन पुद्गल एवं अचेतन शरीररूप घरका तथा परकृत वचनका स्तवन नहीं आता, जो वस्तुतः उससे भिन्न है। वन्दनाका स्वरूप पवित्र-दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयमुत्तमम् । आत्मानं वन्द्यमानस्य वन्दनाकथि कोविदः ॥४६॥ 'शुद्ध दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय उत्तम आत्माको वन्दन-नमस्कार करते हुए योगीके विज्ञपुरुषोंने 'वन्दना' कही है। व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस शुद्धा माके स्तवनको 'स्तव' कहा गया है उसी शुद्धात्माकी वन्दना करनेवालेके प्रस्तुत 'वन्दना' का होना कहा गया है, ऐसा यहाँ सूचित किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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