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१०८ योगसार-प्राभृत
[अधिकार ५ किसी भी प्रकारके कर्मों को अपने आत्मामें प्रवेश होने नहीं देता। निःसन्देह मोह दुःखका बीज है, इसीसे मोहनीय कर्मका क्षय हो जानेपर, असाता-वेदनीय कर्म अस्तित्वमें रहते हुए भी दुःख पहुँचाने में समर्थ नहीं होता-उसे जलकर भस्म हुई रस्सीके समान अपना कार्य करनेमें असमथ बतलाया है।
परद्रव्यमें राग-द्वेष-विधाताकी तपसे शुद्धि नहीं होती शुभाशुभ-पर-द्रव्य-रागद्वेष-विधायिनः ।
न जातु जायते शुद्धिः कुर्वतोऽपि चिरं तपः ॥४२॥ 'शुभ-अशुभरूप परद्रव्यमें-परद्रव्यको शुभ-अशुभ मानकर उसमें-राग-द्वेष करनेवाले के चिरकाल तक तपश्चरण करने पर भी कभी शुद्धि नहीं होती।'
व्याख्या-पिछले पद्यमें जिस मोह तथा परद्रव्यके त्यागनेकी बात कही गयी है उसे जो नहीं छोड़ता है और अपनी कल्पनानुसार शुभ परद्रव्यमें राग और अशुभ परद्रव्यमें द्वेष करता है उसकी शुद्धि चिरकाल तक तप करनेपर भी नहीं होती । वह तो अपनी राग-द्वेषपरिणतिके द्वारा प्रतिसमय अपने आत्मामें अशुद्धिका संचय करता रहता है ।
कर्म करता और फल भोगता हुआ आत्मा कर्म बांधता है कुर्वाणः कर्म चात्मायं भुञ्जानः कर्मणां फलम् ।
अष्टधा कम बध्नाति कारणं दुःखसन्ततः ॥४३॥ 'यह आत्मा कर्म करता हुआ और कर्मोके फलको भोगता हुआ आठ प्रकारका कर्म बाँधता . है, जो कि दुःख सन्ततिका–कष्ट परम्पराका कारण है।'
व्याख्या-यह आत्मा अपनी उक्त राग-द्वेषपरिणतिके कारण किसीको इष्ट-अनिष्ट मानकर कर्म करता हुआ और कर्मका फल भोगता हुआ दोनों ही अवस्थाओंमें नवीन कर्मका बन्ध करता है, जो ज्ञानावरणादि रूप आठ प्रकारका है, और सारी दुःख-परम्पराका मूल कारण है।
सारे कर्मफलको पौद्गलिक जाननेवाला शुद्धात्मा बनता है सर्व पौद्गलिकं वेत्ति कर्मपाकं सदापि यः ।
सर्व-कर्म-बहिर्भूतमात्मानं स प्रपद्यते ॥४४॥ _ 'जो सारे कर्मविपाकको कर्मों के फलको-सदा पौद्गलिक जानता है वह ( योगी) संपूर्ण कर्मोंसे बहिर्भूत आत्माको प्राप्त होता है--उसे अपने शुद्ध (विविक्त) आत्मतत्त्वकी उपलब्धि होती है।'
व्याख्या-जो योगी आत्माके साथ घटित होनेवाले सारे कर्मफलको पौद्गलिक और इसलिए आत्मासे वस्तुतः असम्बद्ध समझता है वह अपने आत्माको सर्वकर्मोंसे बहिर्भूत रूपमें प्राप्त होता है-उसे ही सच्ची स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धिकी प्राप्ति होती है ।
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