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________________ योगसार-प्राभूत [ अधिकार ५ व्याख्या - यदि पिछले पद्य में निरूपित सिद्धान्तके विरुद्ध यह माना जाय कि परकी चिन्तासे कोई पीडित या पालित अथवा वृद्धि हानिको प्राप्त होता है तो संसारमें किसीकी भी सम्पति तथा विपत्ति कभी कम नहीं होनी चाहिए; क्योंकि दोनोंकी वृद्धि हानिके चिन्तक सज्जन- दुर्जन बराबर पाये जाते हैं, इसीसे ऐसा देखने में नहीं आता । प्रत्युत इसके एकके अनिष्ट चिन्तन पर भी दूसरा वृद्धिको और किसीके इष्ट चिन्तन पर भी — रातदिन उसके हितकी माला जपने पर भी वह हानिको प्राप्त हुआ देखनेमें आता है, अतः उक्त मान्यता प्रत्यक्ष भी विरुद्ध है । १०६ वस्तुतः कोई द्रव्य इष्ट-अनिष्ट नहीं gst मोहनोऽनिष्ट भावोऽनिष्टस्तथा परः । न द्रव्यं तत्त्वतः किंचिदिष्टानिष्टं हि विद्यते ॥३६॥ 'मोहके कारण जो पदार्थ इष्ट मान लिया जाता है वह अनिष्ट और जिसे अनिष्ट मान लिया जाता है वह इष्ट हो जाता है। वस्तुतः कोई द्रव्य इष्ट या अनिष्ट नहीं है ।' व्याख्या - कोई द्रव्य वस्तुतः इष्ट या अनिष्ट नहीं होता है, इस बातको स्पष्ट करते हुए यहाँ पर बतलाया है कि जिसे मोहके वश इष्ट मान लिया जाता है वह पदार्थ कालान्तरमें अनिष्ट और जिसे अनिष्ट मान लिया जाता है वह पदार्थ इष्ट होता हुआ देखनेमें आता है । अतः पर द्रव्यको सर्वथा इष्ट या अनिष्ट मानना व्यर्थ है । पावन रत्नत्रयमें जीवका स्वयं प्रवर्तन रत्नत्रये स्वयं जीवः पावने परिवर्तते । निसर्गनिर्मलः शङ्खः शुक्लत्वे केन वर्त्यते ||३७| 'जीव स्वयं पवित्र रत्नत्रयके आराधनमें परिवर्तित ( प्रवृत्त) होता है । ( ठीक है ) स्वभावसे निर्मल शंख किसके द्वारा शुक्लतामें परिवर्तित किया जाता है ? - किसीके भी द्वारा नहीं; स्वभाव से ही शुक्लता में परिवर्तित होता है ।' व्याख्या - यहाँ जिस पावन रत्नत्रयमें जीवके स्वतः प्रवर्तनकी बात कही गयी है वह निर्मल दर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप जीवका स्वभाव है। स्वभाव में प्रवर्तनके लिए किसी दूसरेकी आवश्यकता नहीं होती - विभाव मिटते ही स्वभाव में प्रवृत्ति हो जाती है । जिस मोहरूप परिणामका पिछले पद्योंमें उल्लेख है वह सब जीवका विभाव-परिणमन है, जो संसारावस्थामें परके निमित्तसे होता है । पद्य में प्रयुक्त हुआ 'निर्मल' शब्द शुक्लताका वाचक है, जो शंख स्वभावसे 'शुक्ल है उसे शुक्लता में परिणत करनेवाला कोई दूसरा नहीं होता । कर्दममें पड़ा रहने पर भी उसकी शुक्लता कभी नष्ट नहीं होती । स्वयं आत्मा परद्रव्यको श्रद्धानादि गोचर करता है। Jain Education International स्वयमात्मा परं द्रव्यं श्रद्धत्ते वेत्ति पश्यति । शङ्ख-चूर्णः किमाश्रित्य धवलीकुरुते परम् ||३८|| 'आत्मा स्वयं पर द्रव्यको देखता, जानता और श्रद्धान करता है । ( ठीक है ) शंखका चूर्ण किसका आश्रय लेकर दूसरेको धवल करता है ? किसीका भी आश्रय न लेकर स्वयं दूसरेको धवल करता है ।' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001840
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Tattva-Nav
File Size19 MB
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